Sunday, December 18, 2016

वरिष्ठ साहित्यकार प्रो.सियाराम तिवारी का साक्षात्कार





















शोध प्रबंधों का प्रकाशन आवश्यक है

प्रस्तुति : डॉ. चंदन कुमारी

    हिंदी और बज्जिका साहित्य के मर्मज्ञ, प्रबुद्ध आलोचक, बहुभाषाविज्ञ, अद्वितीय भाषाचिंतक, सुप्रतिष्ठित शिक्षाविद, राम भक्तिकाव्य के अनोखे अध्येता एवं व्याख्याता प्रो. सियाराम तिवारी – जिनकी विद्वता का लोहा समग्र हिंदी साहित्य जगत् मानता हो ; उन साहित्यिक विभूति से मिलने मैं सपरिवार कंकड़बाग स्थित उनके आवास पर, दिनांक 04-06-2016 को शाम 5 बजे पहुँची | बड़ी आत्मीयता से हमें बैठक में बिठाया गया | कुछ क्षणों की प्रतीक्षा के पश्चात् ही वे प्रकट हुए | ज्ञान – आभा युक्त ललाट वाले एक अनुभवी विद्वान् जिन्होंने अपनी दोनों हथेलियों के मध्य एक लिफाफा थामा हुआ था | झक्क सफेद कुर्ता और पायजामा उनपर फब रहा था | बड़े ही शालीन अंदाज में उन्होंने हमें बैठने का संकेत दिया |
उनके स्थान ग्रहण करते ही हम सभी यथास्थान बैठ गए | बैठते ही अपने हाथ में रखा लिफाफा उन्होंने मेरी ओर बढ़ाया | मैंने उसे रख लिया | लगभग टोकते हुए उन्होंने मुझसे कहा, “पढ़िए देखिए तो सही, कितना गद्गद् होकर लिखा है मैंने !” अपनी पहली प्रकाशित कृति “ राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष ” पर की गई प्रो. सियाराम तिवारी की टिप्पणी को पढ़कर मैं भावविभोर हो गई | उन्होंने लिखा था, “ इस पुस्तक को देखकर तो मैं बहुत ही प्रभावित हुआ | इसका विषय जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही गंभीर इसका विवेचन भी है |” अभिभूत होकर मैंने प्रोफेसर साहब की ओर देखा | हल्के से मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा , “ इसीलिए कहा था पढ़ने ! अपनी रचना अपनी संतान – सी होती है | अपनी कृति की प्रशंसा सुनना संतान की प्रशंसा सुनने के समान है |” मंत्रमुग्ध – सी मैं उनकी बातों को सुन रही थी | प्रस्तुत है प्रो. सियाराम तिवारी जी के साथ हुई बातचीत का मुख्य अंश ­:
डॉ. चंदन कुमारी    : प्रो. सियाराम तिवारी जी को मेरा प्रणाम | मैं आपके जीवन के आरंभिक वर्ष के यादगार पलों को साझा करना चाहती हूँ | आपके जन्म से आरंभ करते हैं | आपका जन्म कब और कहाँ हुआ ?
प्रो. सियाराम तिवारी : मेरा जन्म 5 दिसंबर 1934 ई० में  बिहार राज्य के वैशाली (तत्कालीन मुजफ्फरपुर) जिलान्तर्गत नारायणपुर बुजुर्ग नामक गाँव में हुआ | यह हाजीपुर – महुआ रोड पर हाजीपुर से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है |
डॉ. चंदन कुमारी     : उम्र के इस पड़ाव में भी आप इतने ऊर्जावान हैं ! कितना कुछ और करने की ललक है आपमें ! आप बचपनमें कैसे छात्र थे ? अपनी शैक्षणिक पृष्ठभूमि पर तनिक प्रकाश डालें |
प्रो. सियाराम तिवारी : बचपन में मैं अति मेधावी छात्र था | मुझे याद है अपने गाँव में मैट्रिक और इंटरमीडिएट पास करने वाला मैं अकेला छात्र था | आगे की पढाई के लिए शहर की ओर रुख करना पड़ा | पीएच - डी और डी.लिट् तो मैंने यहीं पटना विश्वविद्यालय से किया है |
डॉ. चंदन कुमारी   : आपकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि देखकर लगता है कि आपको आपके माता-पिता का पूर्ण सहयोग प्राप्त था | मैं उनका नाम जानना चाहती हूँ |
प्रो. सियाराम तिवारी : मुझे उनका पूरा सहयोग प्राप्त था | अपनी संतान का सँवरता भविष्य देखने की चाह सभी माता-पिता रखते हैं | मेरे पिताजी किसान थे | उनका नाम स्व. नागेंद्र तिवारी है | मेरी माताजी का नाम श्रीमती चंपा देवी है |
डॉ. चंदन कुमारी   : क्या आपके पिताजी आपको लेखक बनाना चाहते थे ? साहित्य के क्षेत्र में आपका पदार्पण कैसे हुआ ?
प्रो. सियाराम तिवारी : नहीं, पिताजी मुझे लेखक बनाना नहीं चाहते थे | वे मुझे हमेशा ही किसी-न-किसी नौकरी को हाथ में ले लेने के लिए प्रेरित करते रहे | मेरा मन नही मानता था | मैंने ठान रखा था कि प्रोफेसर और लेखक ही बनना है |
डॉ. चंदन कुमारी   : ‘आदमी अगर जो मन में ठान ले जिंदगी से मौत हार मान ले’ वाली उक्ति के साक्षात् प्रमाण हैं आप | आपने जो सोचा वह कर दिखाया | बहुत-बहुत बधाई आपको ! आपका भरा-पूरा परिवार देखकर मन बड़ा आनंदित हो रहा है | आप परिणय-सूत्र में कब बँधे ? आपकी जीवनसंगिनी का क्या नाम है ? आपके लेखन कार्य में उनका सहयोग तो अवश्य रहा होगा ?
प्रो. सियाराम तिवारी : मैं 1955 ई० में परिणय-सूत्र में बंधा | मेरी जीवनसंगिनी का नाम श्रीमती शैल कुमारी है | उनके सहयोग के बिना मैं कहाँ लिख पाता !
डॉ. चंदन कुमारी    : कुछ सात्विक प्रवृति के लोग अपने खान-पान में भी विशेष सावधानी बरतते  हैं | क्या इस संदर्भ में आपकी भी कोई खास आदत है ?
प्रो. सियाराम तिवारी : मैं शुद्ध शाकाहार में विश्वास रखता हूँ | घर का शुद्ध भोजन ग्रहण करता हूँ | बाहर का कुछ भी ग्रहण नही करता हूँ | जल भी ताम्र पात्र का ही ग्रहण करता   हूँ | अन्न तो मेरे लिए साक्षात् ब्रह्म है, इस पर मेरा एक लेख है– “अन्नं ब्रह्म” | पढ़िएगा जरुर !
डॉ. चंदन कुमारी    : जी श्रीमान् ! लेखन-कार्य में आपकी गहरी रूचि और दक्षता का प्रमाण है – आपका साहित्यिक संसार ! आपकी अब तक 23 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं |  आपकी कुछ पुस्तकें प्रकाशनाधीन हैं | कृपया अपनी प्रकाशनाधीन पुस्तकों के बारे में बताइए |
प्रो. सियाराम तिवारी : मेरी दो पुस्तकें अभी प्रकाशनाधीन हैं | इनमें से एक है ‘भारतीय भाषाओँ की पहचान’ | इस पुस्तक को तैयार करने में बड़ा शोध-कार्य करना पड़ा | इस पुस्तक में उल्लिखित 22 भाषाओँ का परिचय ‘भाषा-विशेष’ के विद्वानों द्वारा विशेष श्रम से तैयार किया गया है | मैं अपने सभी सहयोगियों को उनके इस अथक श्रम के लिए साधुवाद देता हूँ |

डॉ. चंदन कुमारी    : आपकी दूसरी प्रकाशनाधीन पुस्तक कौन-सी है ?
प्रो. सियाराम तिवारी : मेरी दूसरी प्रकाशनाधीन पुस्तक है – “धर्म, राष्ट्रीयता और राजनीति” |
डॉ. चंदन कुमारी    : अब आपके श्रीमुख से मैं अपनी कृति ‘राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष’ की कमियों के विषय में जानना चाहती हूँ | कृपया इस संदर्भ में कुछ कहें |
प्रो. सियाराम तिवारी : (.....हँसते हुए) नहीं-नहीं, आपकी पुस्तक में कोई कमी नहीं है | सब ठीक है | लिखे हुए को व्यर्थ बढ़ाने का परिश्रम न करना ही श्रेयष्कर है | लेखन के क्षेत्र में अपार संभावनाएँ हैं, आप उनमें से चुनिए और लिखिए |
डॉ. चंदन कुमारी    : ‘राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष’ वस्तुतः शोध प्रबंध है | आपकी राय में शोध प्रबंधों का प्रकाशन आवश्यक है या नही |
प्रो. सियाराम तिवारी : शोध प्रबंध का अप्रकाशित रह जाना दुर्भाग्यपूर्ण है | शोध प्रबंध के प्रकाशित होने का महत्व सहायक प्राचार्य पद हेतु आयोजित साक्षात्कार में शामिल होने वाले अभ्यर्थी से बेहतर कोई नहीं बता सकता है ! न सिर्फ शोध प्रबंध का प्रकाशन आवश्यक है बल्कि विद्वानों द्वारा इसका उद्धरण दिया जाना भी आवश्यक है | आपकी पुस्तक से उद्धृत अंशों का पूरा रिकॉर्ड आपको अपने पास अद्यतन रखना चाहिए |
डॉ. चंदन कुमारी    : अपनी पुस्तक के उद्धृत होने का रिकॉर्ड किस प्रकार रखा जा सकता है ?
प्रो. सियाराम तिवारी : बहुत उपयोगी प्रश्न है | यदि आपकी पुस्तक का उद्धरण कहीं दिया गया है या आपके मत का ही उल्लेख किया गया है तब उस स्थिति में आपको संबंधित पुस्तक का नाम, संस्करण, प्रकाशन का नाम एवं पृष्ठ संख्या इत्यादि नोट कर रख लेना चाहिए |
डॉ. चंदन कुमारी    : श्रीमान् क्षमा करें ! अन्य विषयों के विद्वान अध्यापकों के साथ आपका संपर्क रहा है या नहीं ?
प्रो. सियाराम तिवारी : पटना विश्वविद्यालय में मेरा संपर्क हिंदी विभाग के अध्यापकों से अधिक इतिहास एवं अंग्रेजी विभाग के अध्यापकों से था | लोग समझते थे मैं उसी विभाग का हूँ |
डॉ. चंदन कुमारी    : आप अपनी नवीनतम व आगामी साहित्यिक योजनाओं के बारे में बताएँ |
प्रो. सियाराम तिवारी : तुलसीदास पर पाँच कार्य करने की मेरी तत्कालीन योजना है |
डॉ. चंदन कुमारी    : आपने अपनी विशद् साहित्यिक योजना के लिए तुलसीदास को ही क्यों चुना ?
प्रो. सियाराम तिवारी : कवि हैं तुलसीदास | उनके कविता लिखने से कविता धन्य हो गई | जब कोई नया कवि मेरे पास अपनी कविता दिखाने आता है तो मैं उससे कहता हूँ, “पहले तुलसीदास को पढो , फिर भी तुझे लगे कि कविता लिख सकते हो तब लिखो अन्यथा नहीं |”
डॉ. चंदन कुमारी    : आपकी विद्वत्ता से भारत भूमि के बाहर के लोग भी भली-भांति परिचित हैं | इस संदर्भ में कोई दिलचस्प घटना आपको याद है तो कृपा कर बताएँ |
प्रो. सियाराम तिवारी : सुनिए, मेरा एक छात्र ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में लेक्चरर है | उसने शांति निकेतन से मेरे निर्देशन में पीएच.डी किया है | वह हंगेरियन है | बुडापेस्ट यूनिवर्सिटी से संस्कृत और हिंदी में एम.ए है | वह संसार के सारे देशों का भ्रमण कर चुका है | एक दिन उसने कहा , “सर आपको आपकी दो कृतियों के लिए सभी लोग जानते हैं – 1.हलधरदास कृत सुदामाचरित्र (पटना 1966)  2. काव्यभाषा (नई दिल्ली 1976) ” |
डॉ. चंदन कुमारी    : अद्भुत है ! श्रीमान् इस संदर्भ में कोई और महत्वपूर्ण बात जो हमेशा आपके जेहन में कौंधता हो !
प्रो. सियाराम तिवारी : हाँ, कई हैं मगर एक सुनिए – वही छात्र जब वहाँ साक्षात्कार के लिए गया था तो उसके एक एक्सपर्ट थे लंदन यूनिवर्सिटी के “प्रो. मैक ग्रेगर” | उन्होंने मेरे शिष्य से पूछा , “Who is your supervisor ?” मेरे शिष्य ने कहा, “प्रो.सियाराम तिवारी” | तब मैक ग्रेगर ने कहा, “I know your supervisor. मैंने अपनी पुस्तक “साउथ इस्ट एशियन लैंग्वेज” में एक अंतरा प्रो. सियाराम तिवारी के ऊपर लिखा है | ” मेरा शिष्य जब यहाँ मुझसे मिलने आ रहा था तब वह अपने साथ उस पुस्तक को लेकर आया था |
डॉ. चंदन कुमारी    : आपके अनुसार पाठालोचन की दृष्टि से रामचरितमानस के कौन-से संस्करण प्रामाणिक हैं ?
प्रो. सियाराम तिवारी : पाठालोचन के आधार पर रामचरितमानस के चार प्रामाणिक संस्करण हैं –   1. नागरी प्रचारिणी सभा  2. गीता प्रेस गोरखपुर 3. माताप्रसाद गुप्त          4. काशिराज संस्करण | इन चारों में काशिराज संस्करण सर्वाधिक प्रामाणिक है |
डॉ. चंदन कुमारी    : परंपरा से बंधकर रहना कवि की नियति है ; इस पर आपका विश्वास है या नही ?
प्रो. सियाराम तिवारी : प्रेमचंद को तो पढ़ा ही होगा आपने ! उनके ‘सेवासदन’ की कुलीन नायिका पति की प्रताड़ना से तंग आकर वेश्या के घर रहने चली जाती है | प्रेमचंद ने उसके विषय में कहा भी है कि काजल की कोठरी में रहकर भी वह बेदाग है | फिर भी, प्रेमचंद ने उसे घर में नही लौटने दिया | उसे आश्रम बनाकर रहना पड़ता है | यहाँ प्रेमचंद को परंपरा रोक रही है | साहित्यकार परंपरा के अतिक्रमण का साहस नहीं करता है |
डॉ. चंदन कुमारी    : यानि आपके अनुसार प्रेमचंद अपनी कृति के सभी पात्रों के साथ उचित न्याय नहीं कर पाते हैं |
प्रो. सियाराम तिवारी : बिल्कुल सही | उनपर यह आरोप है | इसे आधार बनाकर डॉ. नगेंद्र ने एक लेख लिखा – “वाणी के न्याय मंदिर में” | इस लेख में माँ सरस्वती के समक्ष प्रेमचंद की कृतियों के सारे पात्र प्रेमचंद द्वारा उनका उचित विकास न किए जाने का आरोप प्रेमचंद के मत्थे मढ़ते हैं | प्रेमचंद अपनी सफाई देते हैं | दोनों पक्षों की दलील सुनने के पश्चात् वाणी अर्थात् सरस्वती प्रेमचंद को प्रथम श्रेणी के कथाकारों की पंक्ति से उठकर द्वितीय श्रेणी के कथाकारों की पंक्ति में बैठने की सजा सुनाती हैं |
डॉ. चंदन कुमारी    : आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के बारे में आपकी राय क्या है ?
प्रो. सियाराम तिवारी : आधुनिकता काल सापेक्ष है | आज जो आधुनिक है कल पुराना हो जाएगा | तुलसीदास अपने जमाने में आधुनिक थे | आज वे भक्तिकालीन कवि हैं | अतः आधुनिकता शब्द का प्रयोग ही गलत है | जब आधुनिकता ही नही है तो उत्तर आधुनिकता का क्या औचित्य भला ?
डॉ. चंदन कुमारी    : श्रीमान् आपने तुलसीदास पर 5 साहित्यिक कार्य करने की अपनी योजना के बारे में बताया है | क्या उनमें तुलसीदास से संबंधित भ्रांतियों और विवादों पर भी लिख रहे हैं ?
प्रो. सियाराम तिवारी : हाँ , इस विषय को लक्ष्य करके मैं अपनी एक पुस्तक तैयार कर रहा हूँ | पुस्तक का नाम है – “तुलसीदास के विवादित वक्तव्य” | इस पुस्तक में विवादों को उकेरने के साथ ही उसकी उत्पत्ति के कारणों पर भी विशद् चर्चा उपलब्ध होगी |
डॉ. चंदन कुमारी    : रामचरितमानस की एक पंक्ति है – “मरम बचन जब सीता बोला” , मैं जानना चाहती हूँ कि क्या व्याकरण की दृष्टि से आप इस पंक्ति को सही मानते हैं ? कृपया विस्तार से बताएँ |
प्रो. सियाराम तिवारी : व्याकरण की दृष्टि से यह पंक्ति सही है | यहाँ क्रिया सामान्य भूतकाल में   है | अवधी और हिंदी के व्याकरण के अनुसार जब क्रिया सामान्य भूतकाल में होती है तब उसका प्रयोग कर्म के अनुसार किया जाता है | जैसे : राम ने रोटी खाई |/ राम ने भात खाया |/ सीता ने रोटी खाई |/ सीता ने भात खाया |
                याद रखने की बात है कि अवधी में कर्ता का ‘ने’ चिन्ह नहीं होता है और भूतकाल के चारों भेदों में क्रिया का प्रयोग कर्म के अनुरूप ही होता है | यहाँ कर्म है ‘वचन’ जो पुल्लिंग है, इसीलिए ‘सीता बोला’ सही है |
डॉ. चंदन कुमारी    : व्यावहारिक हिंदी में धड़ल्ले से प्रयुक्त किए जाने वाले उन गलत शब्दों के बारे में कुछ बताएँ जिन्हें हम प्रायः सही समझ बैठे हैं |
प्रो. सियाराम तिवारी :  एक वाक्य है – “मैं तुमसे मिलने भागा-भागा आया” | यहाँ ‘भागा-भागा’  की जगह ‘दौड़ा-दौड़ा’ होना चाहिए | भागने का अर्थ है ‘पलायन करना’ और किसी से मिलने का तात्पर्य ही है ‘एक लक्ष्य का संधान करना’ | आपने बहुधा सुना होगा – ‘सोने पे सुहागा’ जबकि होना चाहिए ‘सोने में सुगंध’ (एक तो सोना ऊपर से सुगंधित भी ) | सुहागा तो सोने को गला देता है | एक शब्द अक्सर प्रयुक्त होता है –“कृप्या” , इस शब्द का यह रुप अशुद्ध है | इसका शुद्ध रूप होता है –“कृपया” | ‘कृपा’ , ‘कृपया’ यही सब सही प्रयोग है |
               आपने देखा होगा स्कूल की गाड़ियों पर अक्सर लिखा रहता है –सावधान बच्चे हैं ! यहाँ बच्चे के विशेषण के रूप में सावधान का प्रयोग हुआ है | यह प्रयोग गलत है, इस वाक्य का सही रूप होगा – सावधान ! बच्चे हैं !
डॉ. चंदन कुमारी    : आपसे मेरा अगला प्रश्न आपकी आगामी साहित्यिक कृतियों के बारे में है जिनमे से एक कृति “तुलसीदास के विवादित वक्तव्य” का जिक्र आप कर चुके हैं | कृपया अपनी शेष आगामी कृतियों को भी साझा करें |
प्रो. सियाराम तिवारी : यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |                           अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||                       परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्  |                    धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ||
                गीता की इस पंक्ति से मिलते – जुलते वाक्य रामचरितमानस में है परंतु वहाँ यही पंक्ति भक्ति समन्वित है और यहाँ भक्ति रहित | तुलसीदास पर कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि उन्होंने चुरा लिया है | काव्यशास्त्र में स्पष्ट किया गया है कि परवर्ती कवियों  को पूर्ववर्ती कवियों का लेने का अधिकार है बस एक शर्त है और वह यह कि लिए गए अंश के चमत्कार में वृद्धि की जाए न कि उसे विकृत कर  दें | इन सब पर आधारित मेरी आनेवाली कृति का नाम है , “रामचरितमानस में काव्यहरण का सौंदर्य”| दूसरी पुस्तक है ,”रामचरितमानस का वक्तव्य” | इसमें मैं अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष, ज्ञान और विज्ञान के संदर्भ में तुलसीदास के विचारों को स्पष्ट करूँगा साथ ही विविध ग्रंथों से प्रमाण रूप में  उनकी पुष्टि भी करता चलूँगा | एक पुस्तक “सुंदरकांड” पर आधारित होगी | एक तो प्रकाशित भी हो चुकी है – “जो यह पढ़े हनुमानचालीसा” | यह पुस्तक मैं आपको भेंट करूँगा | इस पुस्तक में मैंने हनुमानचालीसा के 40 पदों की व्याख्या 250 पृष्ठों में की है |
डॉ. चंदन कुमारी    : आप नई पीढ़ी को कुछ संदेश देना चाहेंगें ?
प्रो. सियाराम तिवारी : नई पीढ़ी का परंपरा से जुड़ाव होना चाहिए | उन्हें शास्त्र का एवं प्राचीन काव्य परंपरा का अध्ययन अवश्य करना चाहिए | उन्हें अपने विषय से इतर अन्य विषयों का भी अध्ययन करना चाहिए |
      


Wednesday, November 16, 2016

ऑनलाइन पत्रिका प्रतिलिपि

समाज के हर कोने में झाँकती प्रतिलिपि
                                                                चंदन कुमारी
सर्वथा स्वतंत्र ऑनलाइन मैगज़ीन ‘ प्रतिलिपि ‘ का शुभारंभ अप्रैल 2008 में गिरिराज किराडू , राहुल सोनी एवं शिव कुमार गाँधी द्वारा किया गया | यह द्विभाषी / बहुभाषी एवं बहुलिपि पत्रिका जो नित नूतन निखार व उन्नयन को प्राप्त हो रही है उसका श्रेय रचनाकारों के लेखकीय सहयोग , संपादक मंडल व प्रतिलिपि परिवार के समस्त सदस्यों को जाता है साथ ही उन साहित्य रसिकों को भी जो इस पत्रिका के पाठों का पारायण करते हैं | यह महज पत्रिका नहीं , प्रमाण है विविध क्षेत्रोँमें कार्यरत युवाओं के उस हिंदी प्रेम का जो उन्हें इस ओर रचनाधर्मिता के निर्वाह की प्रेरणा दे रहा है |
प्रतिलिपि पत्रिका (4/8/2016) में प्रकाशित रचनाओं का सरोकार देश , समाज , व्यक्ति और प्रकृति से बराबर का है | समाज की धुरी में बंधे जीवन के हर पोर को छूने की कोशिश इन रचनाकारों की रचनाओं में साफ झलक रही है | सामाजिक व्यवस्था के गुण-दोष के साथ ही वैयक्तिक संवेदनाएँ भी यहाँ मुखर स्वर में अभिव्यक्त हुई हैं |
पत्रिका में संकलित रचनाओं में प्रेम केंद्रित कविताओं की बहुतायत है | प्रेम के स्वरूप वैविध्य (पीड़ा, धोखा, उलझन, शुकून) से रूबरू कराती रचनाएँ हैं – गजल कह रहा हूँ (मुकेश नास्तिक), प्रेम (दीप्ति शर्मा), प्रेम जैसा कुछ (नवनीत), सुनो प्रेयसी , लडकियों के शयनकक्ष में (आयुष झा आस्तिक) इत्यादि | न सिर्फ पद्य बल्कि गद्य के माध्यम से भी प्रेम का पक्ष पत्रिका में उपस्थित हुआ है | कहानी ‘बुजुर्ग कदम – युवा मन’ में प्रेम-विवाह की अस्वीकार्यता के परिणाम एवं उससे उत्पन्न असंतोष एवं पछतावे को अंकित किया गया है | ‘रिश्तों की बैलेंस शीट’ कहानी पुराने विवाहेतर प्रेम संबंध और नई-नवेली दोस्ती के आमने-सामने आते ही रिश्तों के रिआर्गेनाईजेशन की बात रखता नजर आता है |
स्त्री होने के मायने (चंद्रशेखर कुमार) कविता में भोगवादी समाज की कुत्सित मानसिकता के सामने माता-पिता की विवशता का चित्रण किया गया है साथ ही ग्रामीण स्त्रियों के लिए स्त्री होने के सबब का उल्लेख भी यहाँ मिलता है | ग्रामीण पृष्ठभूमि की कहानी बचाओ- बचाओ में स्पष्ट किया गया है कि विपन्नता न तो असमर्थ होती है ना ही सशक्तता से खाली | उस परिस्थिति में जीने वाले भी अपने अस्तित्व रक्षण में पूर्णरूपेण सक्षम होते है | पर विपन्नता पीछा नहीं छोडती | उसके जीवन पर हावी होने का प्रत्यक्ष उदाहरण है बालश्रम | ‘आज फिर कोई कविता लिखूँगा’ (मिथिलेश कुमार) कविता में दही बेचती छोटी लड़की इसका प्रमाण है | जीवन है तो कठिनाइयों से सामना होना ही है , बड़ी बात है उनके रहते उम्मीदों को न टूटने देना – कुछ ऐसी ही बातों से आशावाद का संचार करती कविता है ‘जीवन तो चलता रहेगा ‘ (खुशबू जैन) | आशाएँ हर बार पूरी हो जाएँ यह संभव नहीं है | ‘नीलामी’ कहानी एक बेटे के पिता की आशाओं के प्राणांत की कहानी है जो बरबस ही दहेज-प्रथा की ओर हमारा ध्यान खींचता है | पत्रिका की कई कहानियाँ सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर लिखी गईं हैं जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -                  

     सामाजिक विसंगतियाँ                               कहानी
1.        बहुविवाह , देहव्यापार                                   रुखसाना (प्रज्ञा तिवारी)
2.       घरेलू हिंसा                                            चेहरा / नकाब
3.       लिंगभेद की तुच्छ मानसिकता                             माफ़ी (मोना कुमारी)
4.       आर्थिक लोलुपता , पारिवारिक विभाजन                      बँटवारा
समाज की इस दारुण स्थिति में शिथिल पड़ती संवेदना एवं लुप्तप्राय मानवता कविता ‘कर दीजिए क़त्ल’ में चिंतन के विषय बनकर उभरे हैं | इस पत्रिका में सिर्फ समाज का वीभत्स पक्ष ही अंकित नहीं हुआ है | समाज में उपस्थित सौम्यता को भी रेखांकित किया गया है | सौम्यता का चरम दर्शन माँ के प्रेम में होता है | इस प्रेम को दर्शाने वाली कहानियाँ हैं–अँधेरी दीवाली (अफ्शां फातिमा), जननी माँ और ममता | कहानी ‘वनवास’ और ‘दूर की बात’ (रचना व्यास) में स्पष्ट किया गया है कि व्यावहारिकता के आगे प्रबलतम सिद्धांत भी कमजोर पड़ जाते हैं | परंतु हमारे देश के प्रहरी जिन्हें ‘फुर्सत मिली तो’ (विशाल क्षेत्री) कविता में “सैनिक संत” की संज्ञा दी गई है , अपने वतन की रक्षा के लिए अपने जान की बाजी लगा देनेवाले अपने सिद्धांत को कभी भी कमजोर पड़ने नहीं देते |
‘रोहित बेमुला की मौत पर’ ,‘देश की तस्वीर’ (पंकज कुमार शाह) एवं ‘उम्मीद’, ‘अधूरी कहानी’ (अर्चना कुमारी) इत्यादी कविताएँ भी उल्लेखनीय हैं | ‘फाइन प्रिंट’ एवं ‘जोंक’ (कुमार लव), इन  कविताओं में आत्मीयता और अजनबीपन का साहचर्य साधते मानव जीवन की त्रासदी और मानव मन की गुत्थ्म्गुत्थी की अभिव्यक्ति के लहजे में उत्तरआधुनिकता की झलक मिल रही है | लाक्षणिक प्रयोगयुक्त इन कविताओं की विशिष्टता है कि यहाँ पाठ के भीतर पाठ छिपा हुआ है जिसे हर साहित्यिक या पाठक अपनी अनुभूति के स्तर पर अनुभूत कर सकता है |
यह अनुभूति के स्तर की हेरा-फेरी ही तो है कि आजादी के मायने भी सबके लिए एक से नहीं हैं | ‘निर्भरता से आजादी’ (दर्शिका केशरवानी) पाठ में आजादी के सही मायनों को उजागर करने की कोशिश की गई है | इसी प्रकार ‘अनार’ और ‘आम्रपाली’ की आपसी बातचीत के माध्यम से पाठ ‘आम्रपाली’ (अंशुमाला) में ‘सबै दिन जात न एक समान’ वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है | यहाँ स्पष्ट किया गया है कि भविष्य की चिंता में वर्तमान की खुशियों को नजरंदाज कर जाना बुद्धिमत्ता नही है| यह तथ्य सामान्य मनःस्थिति के लोगों के लिए है परंतु जिनकी मनःस्थिति ही असामान्य हो उनके लिए तो सब एक सा है – बेमतलब का | लघुकथा ‘कमरा न. 42’ (रेणुका चीटकारा) ऐसे ही लोगों के एक नम्बर बन अस्पताल में रह जाने की विवशता की कहानी है | इस दारुण स्थिति के उस दूसरे और सुखद पक्ष का उद्घाटन करती है कहानी ‘नाईस स्माइल सर’ (अभिनव सिंह) | यह एक मानसिक असंतुलन की शिकार लड़की के सामान्य होने की कहानी है | इसमें जहाँ अपने पेशे के प्रति इमानदारी दिखाई गई है , आदमियत दिखाई गई है वहीं गृह कलह के भयावह दुष्परिणामों से भी अवगत कराया गया है |
पत्रिका की कहानी ‘शोभा’ पर्यावरण चेतना से संपन्न प्रतीत होती है तो कहानी ‘y क्यों’ (संजना तिवारी)’ सामाजिक कुंठा और कुत्सित मानसिकता का बयान लगता है | विपरीत परिस्थितियों के समक्ष अपनी सशक्तता साबित करती स्त्रियों को समाज का सबल पक्ष मानती कुछ कहानियाँ हैं – ‘भेड़िया’ (योगिता यादव), ‘सौभाग्यवती भव’ , ‘जिरह’ इत्यादी | इस तथ्य से भी इंकार नही किया जा सकता कि सशक्तता के बावजूद भी लोग त्रस्त हैं ! भेड़ियेपन के आतंक से त्रस्त ! विमर्शों और विचारों की रोज हो रही बढ़त से इस आतंक की तोड़ न जाने कब निकले ! एक और त्रासदायक स्थिति है – वह है आकाश छूतीं मंहगाई जिसका जिक्र ‘मंहगाई के नाम पत्र’ (अरुण गौड़) में किया गया है | यहाँ आम जनता पर मंहगाई के दुष्प्रभाव का अंकन किया गया है साथ ही इससे अप्रभावित नेताओं और अधिकारियों पर भी बेबाक टिप्पणी की गई है |

पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ में संकलित जागरूक एवं संवेदनशील नई पीढ़ी की रचनाएँ आश्वस्त करतीं हैं कि संवेदना के सागर में कुछ जल अभी शेष है जो संभवतः एक उम्मीद जगाती है सुव्यवस्था के पुनः आगमन की |  

Monday, October 10, 2016

उत्तर आधुनिक साहित्यिक परिदृश्य : गर्भ में


                  आशाएँ अभी शेष हैं : गर्भ में  
                                          चंदन  कुमारी                        
तेलंगाना के युवा हिंदी कवि ‘ कुमार लव ‘(1986) कविता के साथ ही लघुकथा, कहानी व उपन्यास जैसी अन्य साहित्यिक विधाओं में भी अपनी दखल रखते हैं | एक सक्रिय ब्लॉगर के रूप में भी इन्होंने अपनी पहचान बनाई है | अल्पायु में ही लगभग 500 से भी अधिक कविताएँ रचनेवाले इन्हीं कवि की नई नकोर कविताओं का संग्रह है “ गर्भ में “(2015)|
एक जीव के जीवन पथ पर अग्रसर होने का प्रथम बिंदु है ‘ गर्भ ‘ और काव्य संग्रह “गर्भ में” उस पथ की खट्टी-मीठी-कड़वी अनुभूतियों का सहज बोधगम्य पाठ है | कुल 79 कविताओं का यह संग्रह छः खंडो में विभाजित है जो इस प्रकार हैं – 1. विसंवाद (13 कविताएँ) 2. किसलिए (8 कविताएँ) 
3. धमनी विस्फार (11 कविताएँ) 4. क्रोकोडाइल (9 कविताएँ) 5. कत्तनवाली (18 कविताएँ) 6. हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया (20 कविताएँ) |
“गर्भ में” (2015) में संग्रहित कविताओं की अपनी विषयगत विविधताएँ हैं | इन कविताओं में स्वप्न भी बुना जा रहा है और यथार्थ भी जिया जा रहा है | बदहाल समाज, किशोरवय का रोमानीपन, मानसिक कुंठा और स्वतंत्र व सशक्त मन का आह्लाद – सभी कविताओं के जरिए अभिव्यक्त हो रहे हैं | इन विविधताओं के साथ ही इन कविताओं में एक साम्यता है | वह साम्यता है – उत्तरआधुनिक साहित्यिक परिदृश्य की उपस्थिति ! इस उपस्थिति को जानदार बनाने के लिए दृश्य और अदृश्य जगत को मिलाकर, अतीत और वर्तमान के संदर्भो को जोड़कर कई अभिनव प्रयोग किए गए हैं | अपने प्रयोगों की साहित्यिक दुनिया को कवि ने दैनंदिन जीवन के आम क्रियाकलापों से भी जोड़ा 
है | द्रष्टव्य है – “ खिचड़ी की थाली-सा चाँद मुझे चिढ़ाता रहा | “ (सपनों की टोली, पृ.115) | यहाँ ‘चिढ़ाने ‘ शब्द के लिए ‘खिचड़ी की थाली ‘ का प्रयोग किसी लोकगीत का स्मरण कराते हुए भी चिढ़ाने के संदर्भ में सर्वथा नवीन है और सटीक भी | पुनः देखें- “ अश्वमेध” (चार आँखों वाला कुत्ता, पृ.135) की तर्ज पर “ नरमेध “ (मुखिया जी,पृ.75) शब्द का प्रयोग न सिर्फ नयापन लिए हुए है वरन यथार्थ के नग्न चित्र की उपस्थिति का सूचक भी प्रतीत होता है |
सरल शब्दों में रची गई इन कविताओं में निहित अर्थ गाम्भीर्य वैयक्तिकता और सामाजिकता से जुड़े अनगिणत त्रासदीयुक्त यथार्थों की सहज अभिव्यक्ति जान पड़ते हैं | इन्हीं सहज अभिव्यक्तियों के आवरण में लिपटा है विचारों का वह वबंडर जो सुप्त चेतना को जगाना चाहता है | द्रष्टव्य हैं कुछ ऐसे यथार्थ –
    1.      कल यह भी बन सकती है एक नंबर       
    4, 5, 6, 10, 12
    या अब तक दिखी सबमें
    सबसे भयावह, the worst
                  (कीचड़ में नन्ही पड़ी ,पृ.48)
 2.      उलटे उसने कहा
    यहाँ नहीं !      (उलटी ,पृ.77)

 3 . माथे पर इनके
           गुदा है
     सोच जहाँ से निकल गई है
     और प्रोग्राम  अंदर बैठ गया है | (घृणातीत, पृ.47)

 4 . गंध आती भी है तो
     कुत्ते की होगी सोच
        कोई देखता नही !  (द्वंदातीत पृ.34)

 5. टी वी पर एक कवि का खून बह रहा था
         कुछ पल्ले नहीं पड़ा
            मुँह फेर
         फिर सो गया |    (विसंवाद पृ.22)

जगबीती प्रतीत होने वाली ये सारी बातें और ऐसी कई अन्य बातें जिनका उल्लेख यहाँ नहीं है परंतु समीक्ष्य कृति ‘ गर्भ में ‘ में है किसी-न-किसी की आपबीती हैं | त्रासदी यह है कि समाज भावधर्माओं का समाज बनता जा रहा है जहाँ इन तथ्यों की अद्यतन जानकारी रखना भर पर्याप्त
है |  जल में डूबते डंक मारने वाले जीवों की रक्षा करने वाले मनुष्यों की मनुष्यता आज स्वतः डूबती मालूम पड़ती है| एक निपुणता हाथ लगी है ! अवसर को लोक लेने की कला में माहिर होते मनुष्य आसानी से अपनत्व भी भूल जाते हैं | देखें –
 “छोड़ आए थे उसे अकेला / वही सब जिन्हें बचाने को / रुका था वह वहाँ!” (किसलिए,पृ.44)
मित्रता का ऐसा हश्र देख कवि मन को अनगिणत कलिकाओं वाले आलू का संग भला लगता है | सच्ची मित्रता तो बस हो जाती है वहाँ सोच-विचार की गुंजाइश नहीं होती | कवि कहते हैं-“ देखते रहते सदा /अनगिणत छोटी आँखों से मुझे /पागल समझ फिर भी कभी मुझ पर हँसते नहीं” (मेरे दोस्त आलू,पृ.126) |
जीवन के रंगमंच पर मनुष्य रूपी कठपुतली का खेल है यह संसार जहाँ किसी के हिसाब से कुछ नही घटता है | कहना गलत न होगा कि चाँद के लिए सही नाप का झिंगोला सिला जाना जितना मुश्किल है उतना ही मुश्किल है इस संसार में इंसान के लिए खुद को फिट कर पाना | कुमार लव के शब्दों में – “ जहाँ जकड़नी चाहिए मुझे / वहाँ तो बहुत ढीली है,/ वरना – बहुत ही तंग,/ बहुत तंग | (गलत नाप, पृ.40)|
कविता “हूँ – 2” (पृ.59) ‘ अति संघर्षण जौं कर कोई अनल प्रगट चंदन ते होई ‘ वाली उक्ति  का स्पष्टीकरण प्रतीत होता है | ” तेरे कैनवास दे उत्ते “ (पृ.84-85) शीर्षक कविता में सपने और अधबने रिश्ते के बीच की सच्चाई को कहने की कोशिश झलकती है | कई कविताएँ हैं जिनमें कवि ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि किस कदर शब्द खामोशी में अंतर्हित हो गए हैं और प्रेम का चांचल्य शिथिल पड़ गया है | इस काव्य संग्रह की “उल्लंघन” (पृ.59) शीर्षक कविता जहाँ सरदार भगत सिंह के जन्मदिन से संबद्ध है तो वहीं “Rimbaud” (पृ.66) का संबंध फ्रेंच कवि आर्थर रिमबाउड से है | संग्रह की कुछ कविताएँ बहुत छोटी व कुछ लंबी भी हैं |
समीक्ष्य काव्य संग्रह का शीर्षक ” गर्भ में “ मुझे आशावाद का द्योतक जान पड़ता है और पूर्णरूपेण सार्थक भी ! गर्भ के भीतर की दुनिया कितनी अंधेरी होती है ! पर उसके भीतर पलता भ्रूण अकुलाता नहीं ! वह वहीं अपनी सुरक्षा को महसूसता हुआ पलता रहता है , कुछ इस तरह – “अँधेरा छाता 
रहा / गर्माहट आती रही / और मैं छुप गया / उस गर्भ में / सुरक्षित / पूरी तरह से | ” (गर्भ में, पृ.131) |
इस पुस्तक की भूमिका (पृ.xiii) में प्रो. गोपाल शर्मा के उद्गार – “ ... कुमार लव ने यह सृष्टि रचकर प्रजापतित्व (अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः) प्राप्त किया है , इसमें संदेह नहीं| “ के लिए कुमार लव निश्चित ही बधाई के पात्र हैं |
देरिदा के विखंडन के सिद्धांत में अब्राम्स के अनुसार दो पाठों की बात की गई है| पहला अनुकूल पाठ रचयिता के आशय के पास पहुँचने की कोशिश करता है तो दूसरा प्रतिकूल पाठ उसके द्वारा दबाए गए आशयों को खोजता है | ऐसे में सहज संभव है कि व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण के अनुसार एक ही कृति के कई पाठ हों| हर कोई अपना पाठ बना सके इसके लिए आवश्यक है कवि के पाठ में प्रवेश करना ! आएँ चलें गर्भ में !
समीक्षित कृति : गर्भ में / कवि : कुमार लव / संस्करण : 2015 / मूल्य : 300 रु / प्रकाशन : तक्षशिला प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या : 136 |