सोमवार, 27 अगस्त 2018
रामायण में आदिवासी की भूमिका
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आदिवासी को अनुसूचित जनजाति
कहा जाता है | अपनी विशिष्ट संस्कृति और भाषा को सहेज कर रखनेवाले इस समुदाय को
कथित उन्नत समाज में पिछड़ा माना जाता है जबकि वे आदि निवासी हैं | ‘आदिवासी’ शब्द का
शाब्दिक अर्थ है “मूल निवासी” | “आदिवासी देश के मूल निवासी माने जाने वाले तमाम
आदिम समुदायों का सामूहिक नाम है |...आदिवासी पद का ‘आदि’ उन समुदायों के आदिम युग
तक के इतिहास का द्योतक है |”1 “आदिवासी विशेषज्ञ जे.जे.राय बर्मन के
अनुसार आदिवासियों में सभी जातियाँ मूल आदिवासी जाति की केटेगरी में नहीं
आतीं...|”2 विख्यात आदिवासी चिंतक रमणिका गुप्ता ने अनार्यों के प्रति
आर्यों का दृष्टिकोण बताते हुए रामायण का संदर्भ जोड़कर स्पष्ट किया है कि आर्यों
ने आदिवासियों (अनार्यों) को मनुष्येतर श्रेणी में रखा है जो सर्वथा अनुचित है | द्रष्टव्य
हैं उनके विचार - “...अनार्य उनकी दृष्टि में मनुष्यता का दर्जा पाने के हकदार ही
नहीं थे | वे असुर थे, राक्षस थे, दानव थे, और सब विकृतियों, दुर्गुणों से लैस और
बदसूरती के प्रतीक थे | पशुओं के सींग, पूंछ और लंबे-लंबे दांत उनपर मढ दिए गए थे
| मनुष्य तो इन्हें आर्यों ने माना ही नहीं | जिसने राम का विरोध किया उसे राक्षस
करार कर दिया गया | और तो और जिन्होंने राम की सहायता कर उसका साम्राज्य कायम
कराया, उन्हें भी बन्दर, भालू, गरुड़ कहा – मनुष्य नहीं |”3 मनुष्यता के क्रंदन और हनन की अनुगूँज तो भक्तिकालीन
कवियों की कविताओं में भी मुखरित है|
रामायण में वर्णित विशिष्ट समुदायों के विशेष नाम (बन्दर, भालू, गरुड़,
राक्षस, कोल, किरात, भील, वनवासी) रूप और गुण आधृत प्रतीत होते हैं | रामायण की
संरचना में ‘आदिवासी’ अंतर्गुम्फित एवं समादृत हैं | रामचरितमानस में ‘तुलसीदास’ “सुर
अंसिक सब कपि और रीछा”4 कह कर इन्हें संबोधित करते हैं | राम ने इन्हें
स्वयं से कम कब आँका ? कम आँका होता तो
भला भीलनी शबरी के जूठे बेर इतने प्रेम से वे क्यों खाते ? भला वे क्यों कहते
निषादराज गुह से-
“तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता | सदा रहेहु पुर आवत जाता ||”5
अंगद
ने जब राम से कहा-
“नीचि टहल गृह कै सब करिहऊँ |पद पंकज बिलोकि भव तरिहऊँ ||”6
तब राम ने उन्हें दास स्वीकार कर उनकी
दीनता को प्रश्रय नहीं दिया बल्कि स्वतंत्र जीवन निर्वाहोन्मुख किया, पूर्णतः
मनुष्योचित व्यवहार | निषादराज गुह जब दूर से ही गुरु वशिष्ठ को अपना परिचय देते हुए
प्रणाम करते हैं तब परिचय जानकर गुरु वशिष्ठ कितनी उत्कंठा और प्रेम से निषादराज
से मिलते हैं, वह क्षण यहाँ द्रष्टव्य है -
“प्रेम पुलकि केवट कहि नामू | कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू
||
रामसखा रिषि बरबस
भेंटा |जनु महि लुठत सनेह समेटा ||”7
रामायण में आदिवासी के लिए प्रेम है, सम्मान है, अपनत्व है साथ ही
जहाँ कुचाल, अत्याचार, अधर्म और अनीति का बोलबाला है वहाँ युद्ध का भी समशील विधान
है | युद्ध में वीरगति या जय-पराजय तो दोनों पक्षों के युद्ध कौशल एवं रणनीति पर
ही निर्भर होती है | लंका विजय से पूर्व राम ने अपने इष्टदेव महादेव की पूजा की |
महादेव को आदिदेव (प्रथम देव) माना जाता है | डॉ. रामदयाल मुंडा के अनुसार “...शिव
एक आदिवासी देवता हैं | आदिवासी सभ्यता के ही अवशेष के रूप में सिंधु घाटी की
खुदाई में उपलब्ध शिव जैसी मूर्ति पशुओं से घिरी मिलती है | ... उनकी वेशभूषा
आदिवासियों की ही तरह है |”8 रावण भी शिवभक्त था | “छोटानागपुर के कुडडुख
भाषा-भाषी उराँव आदिवासी अपने को रावण का वंशज कहते हैं| भाषाविज्ञान के दृष्टिकोण
से भी उराँव और रावण शब्दों का नजदीकी संबंध स्पष्ट है |”9 रावण के
समुदाय की सदस्य त्रिजटा सीता की शुभचिंतक थी | गिद्धराज जटायु ने तो पुत्री सीता
की रक्षा हेतु अपने प्राणों का भी मोह नहीं रखा | “प्रायः सभी मुंडा आदिवासी
भाषाओँ में सीता का अर्थ हल चलाना ...है | मुंडारी भाषा में एक जदुर गीत भी गाया
जाता है जिसकी प्रथम दो पंक्तियों का अर्थ है :
“हमने हल चलाते समय उसे पाया था |
हम इसे सीता नाम ही
देंगे |”10
उपरोक्त लोकगीत में
सीता सहित जनक को भी आदिवासी बताया जा रहा है |
आदिवासियों का प्रकृति से विशेष जुड़ाव होता है |
वन, पर्वत, खोह, कंदरा, समुद्र और जड़ी-बूटियों से वे भलीभांति परिचित होते हैं |
उनमें कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं, जैसे – वैद्यराज सुषेण, नल-नील (शिल्पी) इत्यादि
| नल-नील जिन्होंने अपनी शिल्पकला द्वारा अपने दल की सहायता से रामसेतु का निर्माण
किया | नल-नील की इस विद्या से राम अनभिज्ञ थे | तभी समुद्रराज से रास्ता देने के
लिए उन्होंने तीन दिनों तक विनयपूर्वक प्रार्थना की | विनीत प्रार्थना की अवहेलना
जान ही उन्होंने लोकशिक्षण और लोकहित हेतु धनुष उठाया और धनुष की एक टंकार हुई
नहीं कि समुद्रराज हाथ जोड़े प्रकट हो गए समाधान देने | समाधान के रूप में नल-नील
की शिल्प विद्या का रहस्य राम के समक्ष उजागर किया, जिससे लंका तक जाने का मार्ग
प्रशस्त हुआ |
रामायण में एक ओर राम के सहायकों (विभीषण और सुग्रीव) का राज्याभिषेक
हुआ और दूसरे पक्ष का चिताभिषेक हुआ | सभी को एक ही लाठी से हाँकना कभी न्यायोचित
नहीं होता है | यदि यही सही होता तो चित्रगुप्त को कर्मफल के बही-खाते से न जाने कब का छुटकारा मिल जाता ! मुनियों
और सज्जनों को त्रास देनेवाले राक्षसों का वध यथायोग्यं तथा कुरु के तर्ज पर राम
ने किया है | राम के इस कार्य में सहयोग देने हेतु स्वयं देवतागण आदिवासी के रूप
में धरती पर आए जो शूरवीर होने के साथ-साथ धीर बुद्धिवाले भी हैं | देखें-
“बनचर देह धरी छिति माहीं |अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ||”11
रामायण में आदिवासी अपनी भूमिका का निर्वाह रामजन्म के पूर्व से ही कर
रहे थे | दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ को पूर्ण करानेवाले ‘शृंगी’ ऋषि भी आदिवासी हैं | “शृंगी
ऋषि एक आदिवासी थे, जो अपने लंबे जटाजूट बालों को सींग से बनी कंघी द्वारा बांधे
रहते थे और जिसका उपयोग अब भी कई आदिवासी जातियों में होता है |” 12
रामायण में आदिवासियों का स्वरूप, उनका आचार-विचार, उनकी मंत्रणा
शक्ति, उनकी संवेदनशीलता तब और उभरकर सामने आता है जब राम अयोध्या का वैभव तजकर पाँव
पयादे ही भ्राता लक्ष्मण एवं भार्या सीता सहित वन की ओर प्रस्थान करते हैं | पहले
तो निषादराज से भेंट, अशोक वृक्ष के तले भरपूर आतिथ्य-सत्कार फिर केवट द्वारा गंगा
पार कराने से पूर्व राम-पद-प्रक्षालन और फिर केवट की जिद कि बस आपकी कुटिया तैयार
करने तक साथ रहने दें | उधर देवता भी कोल-किरात के वेश में वन में आकर पर्णकुटी तैयार
करने में जुटे हुए थे | राम के वनागमन का समाचार ज्योंहि कोल-किरातों को मिली वे प्रेमसहित
कंद-मूल लेकर ऐसे दौड़े मानों अपनत्व का उफनता सागर वनवासी राम की ओर उमगता चला आ
रहा हो | उस सहज स्नेहसागर के हर बूंद को राम ऐसे सहेज रहे हैं जैसे पिता छोटे
बालकों की बातों को समेटते हैं | द्रष्टव्य है –
“हम सब भांति करब
सेवकाई | करि केहरि अहि बाघ बराई ||
बन बेहड़ गिरि कंदर
खोहा |सब हमार प्रभु पग पग जोहा ||
तहँ तहँ तुम्हहि
अहेर खेलाउब | सर निरझर जलठाउँ देखाउब ||
हम सेवक परिवार समेता
| नाथ न सकुचब आयसु देता ||
दो० – बेद बचन मुनि
मन अगम ते प्रभु करुना ऐन |
बचन किरातन्ह के
सुनत जिमि पितु बालक बैन ||”13
यह राम का स्नेहभरित
नया संसार है और विरहलीन अयोध्या में पशु भी विकल हैं | उधर निषादराज ने व्याकुल
सुमंत्र और भरत को ढाढस बँधाया और इधर सभी निषाद राम विरह में विकल घोड़े की व्याकुलता से विकल हो रहे हैं, द्रष्टव्य है -
“ नहिं तृन चरहिं न
पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि |
ब्याकुल भए निषाद सब
रघुबर बाजि निहारि ||”14
अंतःकरण में ऐसी संवेदनशीलता,
शुद्धता और निर्मलता यहीं मिल सकती है | बनावटीपन
से सर्वथा अनभिज्ञ पर स्वाभिमानी आदिवासी समाज, वन में भरत के संग आए अयोध्या समाज
के सम्मुख अपनी जीवन शैली को बिना किसी दुराव-छिपाव के विनयशील भाषा में प्रकट
करते हैं | द्रष्टव्य है -
“तुम्ह प्रिय पाहुने
बन पगु धारे | सेवा जोगु न भाग हमारे ||
देब काह हम तुम्हहि
गोसाँई | ईंधनु पात किरात मिताई ||
यह हमारि अति बडी
सेवकाई | लेहिं न बासन बसन चोराई ||
हम जड़ जीव जीव गन
घाती | कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ||
पाप करत निसि बासर
जाहीं | नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं ||
सपनेहुँ धरमबुद्धि
कस काऊ | यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ||”15
आदिवासी समाज अपने
जीवन की विपन्नता में भी अपनी संस्कृति और परंपराओं का निर्वाह जिंदादिली से करते
हैं | घोर विपत्ति की स्थिति में भी साहस और जुझारूपन से कार्य संपादित करना इनकी
विशेषता है जिसके सर्वोपयुक्त उदाहरण हैं हनुमान जिन्होंने बारंबार असाध्य को
साधते हुए सबको विपत्तियों से उबारा है | रामायण में आदिवासी गरिमामंडित हैं |
संदर्भ सूची :
1.
मीणा, गंगा
सहाय (2014), आदिवासी साहित्य विमर्श, पृ.19
2.
चतुर्वेदी,जगदीश्वर.
आदिवासी अवधारणा की तलाश में-1, jagadishwarchaturvedi.blogspot.in
3.
गुप्ता,
रमणिका (2008), आदिवासी कौन, राधाकृष्ण प्रकाशन, संपादकीय : जरूरत है बिरसा के
विस्तार की, पृ.7
4.
तुलसीदास,गोस्वामी.
रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता प्रेस लंकाकांड, 113-4
5.
वही,
उत्तरकांड,19ग-2
6.
वही,
उत्तरकांड, 17ख -4
7. वही, अयोध्याकांड, 242-3
8.
गुप्ता,
रमणिका (2008), आदिवासी कौन, राधाकृष्ण प्रकाशन. मुंडा, डॉ. रामदयाल, भारतीय संस्कृति को
आदिवासियों की देन, पृ. 96
9.
वही,
पृ. 99
10. वही, पृ. 98
11. तुलसीदास,गोस्वामी. रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता
प्रेस बालकांड 187-2
12. गुप्ता, रमणिका (2008), आदिवासी कौन, राधाकृष्ण
प्रकाशन, पृ. 98
13. तुलसीदास,गोस्वामी. रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता
प्रेस अयोध्याकांड, 135-3, 4; 136
14. वही, 142
15.
वही,
250-1,2,3
रविवार, 26 अगस्त 2018
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