समाज के हर कोने में
झाँकती प्रतिलिपि
चंदन कुमारी
सर्वथा स्वतंत्र ऑनलाइन मैगज़ीन ‘ प्रतिलिपि ‘ का
शुभारंभ अप्रैल 2008 में गिरिराज किराडू , राहुल सोनी एवं शिव कुमार गाँधी द्वारा
किया गया | यह द्विभाषी / बहुभाषी एवं बहुलिपि पत्रिका जो नित नूतन निखार व उन्नयन
को प्राप्त हो रही है उसका श्रेय रचनाकारों के लेखकीय सहयोग , संपादक मंडल व
प्रतिलिपि परिवार के समस्त सदस्यों को जाता है साथ ही उन साहित्य रसिकों को भी जो
इस पत्रिका के पाठों का पारायण करते हैं | यह महज पत्रिका नहीं , प्रमाण है विविध
क्षेत्रोँमें कार्यरत युवाओं के उस हिंदी प्रेम का जो उन्हें इस ओर रचनाधर्मिता के
निर्वाह की प्रेरणा दे रहा है |
प्रतिलिपि पत्रिका (4/8/2016) में प्रकाशित
रचनाओं का सरोकार देश , समाज , व्यक्ति और प्रकृति से बराबर का है | समाज की धुरी
में बंधे जीवन के हर पोर को छूने की कोशिश इन रचनाकारों की रचनाओं में साफ झलक रही
है | सामाजिक व्यवस्था के गुण-दोष के साथ ही वैयक्तिक संवेदनाएँ भी यहाँ मुखर स्वर
में अभिव्यक्त हुई हैं |
पत्रिका में संकलित रचनाओं में प्रेम केंद्रित
कविताओं की बहुतायत है | प्रेम के स्वरूप वैविध्य (पीड़ा, धोखा, उलझन, शुकून) से
रूबरू कराती रचनाएँ हैं – गजल कह रहा हूँ (मुकेश नास्तिक), प्रेम (दीप्ति शर्मा),
प्रेम जैसा कुछ (नवनीत), सुनो प्रेयसी , लडकियों के शयनकक्ष में (आयुष झा आस्तिक)
इत्यादि | न सिर्फ पद्य बल्कि गद्य के माध्यम से भी प्रेम का पक्ष पत्रिका में
उपस्थित हुआ है | कहानी ‘बुजुर्ग कदम – युवा मन’ में प्रेम-विवाह की अस्वीकार्यता
के परिणाम एवं उससे उत्पन्न असंतोष एवं पछतावे को अंकित किया गया है | ‘रिश्तों की
बैलेंस शीट’ कहानी पुराने विवाहेतर प्रेम संबंध और नई-नवेली दोस्ती के आमने-सामने
आते ही रिश्तों के रिआर्गेनाईजेशन की बात रखता नजर आता है |
‘स्त्री
होने के मायने’ (चंद्रशेखर
कुमार) कविता में भोगवादी समाज की कुत्सित मानसिकता के सामने माता-पिता की विवशता का
चित्रण किया गया है साथ ही ग्रामीण स्त्रियों के लिए स्त्री होने के सबब का उल्लेख
भी यहाँ मिलता है | ग्रामीण पृष्ठभूमि की कहानी ‘बचाओ- बचाओ’ में स्पष्ट किया गया है कि विपन्नता न तो असमर्थ
होती है ना ही सशक्तता से खाली | उस परिस्थिति में जीने वाले भी अपने अस्तित्व
रक्षण में पूर्णरूपेण सक्षम होते है | पर विपन्नता पीछा नहीं छोडती | उसके जीवन पर
हावी होने का प्रत्यक्ष उदाहरण है बालश्रम | ‘आज फिर कोई कविता लिखूँगा’ (मिथिलेश
कुमार) कविता में दही बेचती छोटी लड़की इसका प्रमाण है | जीवन है तो कठिनाइयों से
सामना होना ही है , बड़ी बात है उनके रहते उम्मीदों को न टूटने देना – कुछ ऐसी ही
बातों से आशावाद का संचार करती कविता है ‘जीवन तो चलता रहेगा ‘ (खुशबू जैन) |
आशाएँ हर बार पूरी हो जाएँ यह संभव नहीं है | ‘नीलामी’ कहानी एक बेटे के पिता की
आशाओं के प्राणांत की कहानी है जो बरबस ही दहेज-प्रथा की ओर हमारा ध्यान खींचता है
| पत्रिका की कई कहानियाँ सामाजिक विसंगतियों को लक्ष्य कर लिखी गईं हैं जिनमें से
कुछ निम्नलिखित हैं -
सामाजिक विसंगतियाँ कहानी
1. बहुविवाह , देहव्यापार रुखसाना (प्रज्ञा
तिवारी)
2. घरेलू हिंसा
चेहरा / नकाब
3. लिंगभेद की तुच्छ मानसिकता माफ़ी (मोना कुमारी)
4. आर्थिक लोलुपता , पारिवारिक विभाजन बँटवारा
समाज की इस दारुण स्थिति में शिथिल पड़ती संवेदना
एवं लुप्तप्राय मानवता कविता ‘कर दीजिए क़त्ल’ में चिंतन के विषय बनकर उभरे हैं |
इस पत्रिका में सिर्फ समाज का वीभत्स पक्ष ही अंकित नहीं हुआ है | समाज में
उपस्थित सौम्यता को भी रेखांकित किया गया है | सौम्यता का चरम दर्शन माँ के प्रेम
में होता है | इस प्रेम को दर्शाने वाली कहानियाँ हैं–अँधेरी दीवाली (अफ्शां
फातिमा), जननी माँ और ममता | कहानी ‘वनवास’ और ‘दूर की बात’ (रचना व्यास) में
स्पष्ट किया गया है कि व्यावहारिकता के आगे प्रबलतम सिद्धांत भी कमजोर पड़ जाते हैं
| परंतु हमारे देश के प्रहरी जिन्हें ‘फुर्सत मिली तो’ (विशाल क्षेत्री) कविता में
“सैनिक संत” की संज्ञा दी गई है , अपने वतन की रक्षा के लिए अपने जान की बाजी लगा
देनेवाले अपने सिद्धांत को कभी भी कमजोर पड़ने नहीं देते |
‘रोहित बेमुला की मौत पर’ ,‘देश की तस्वीर’ (पंकज
कुमार शाह) एवं ‘उम्मीद’, ‘अधूरी कहानी’ (अर्चना कुमारी) इत्यादी कविताएँ भी
उल्लेखनीय हैं | ‘फाइन प्रिंट’ एवं ‘जोंक’ (कुमार लव), इन कविताओं में आत्मीयता और अजनबीपन का साहचर्य
साधते मानव जीवन की त्रासदी और मानव मन की गुत्थ्म्गुत्थी की अभिव्यक्ति के लहजे
में उत्तरआधुनिकता की झलक मिल रही है | लाक्षणिक प्रयोगयुक्त इन कविताओं की
विशिष्टता है कि यहाँ पाठ के भीतर पाठ छिपा हुआ है जिसे हर साहित्यिक या पाठक अपनी
अनुभूति के स्तर पर अनुभूत कर सकता है |
यह अनुभूति के स्तर की हेरा-फेरी ही तो है कि
आजादी के मायने भी सबके लिए एक से नहीं हैं | ‘निर्भरता से आजादी’ (दर्शिका
केशरवानी) पाठ में आजादी के सही मायनों को उजागर करने की कोशिश की गई है | इसी
प्रकार ‘अनार’ और ‘आम्रपाली’ की आपसी बातचीत के माध्यम से पाठ ‘आम्रपाली’
(अंशुमाला) में ‘सबै दिन जात न एक समान’ वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है | यहाँ
स्पष्ट किया गया है कि भविष्य की चिंता में वर्तमान की खुशियों को नजरंदाज कर जाना
बुद्धिमत्ता नही है| यह तथ्य सामान्य मनःस्थिति के लोगों के लिए है परंतु जिनकी
मनःस्थिति ही असामान्य हो उनके लिए तो सब एक सा है – बेमतलब का | लघुकथा ‘कमरा न.
42’ (रेणुका चीटकारा) ऐसे ही लोगों के एक नम्बर बन अस्पताल में रह जाने की विवशता
की कहानी है | इस दारुण स्थिति के उस दूसरे और सुखद पक्ष का उद्घाटन करती है कहानी
‘नाईस स्माइल सर’ (अभिनव सिंह) | यह एक मानसिक असंतुलन की शिकार लड़की के सामान्य
होने की कहानी है | इसमें जहाँ अपने पेशे के प्रति इमानदारी दिखाई गई है , आदमियत
दिखाई गई है वहीं गृह कलह के भयावह दुष्परिणामों से भी अवगत कराया गया है |
पत्रिका की कहानी ‘शोभा’ पर्यावरण चेतना से
संपन्न प्रतीत होती है तो कहानी ‘y क्यों’ (संजना तिवारी)’ सामाजिक कुंठा और
कुत्सित मानसिकता का बयान लगता है | विपरीत परिस्थितियों के समक्ष अपनी सशक्तता
साबित करती स्त्रियों को समाज का सबल पक्ष मानती कुछ कहानियाँ हैं – ‘भेड़िया’
(योगिता यादव), ‘सौभाग्यवती भव’ , ‘जिरह’ इत्यादी | इस तथ्य से भी इंकार नही किया
जा सकता कि सशक्तता के बावजूद भी लोग त्रस्त हैं ! भेड़ियेपन के आतंक से त्रस्त !
विमर्शों और विचारों की रोज हो रही बढ़त से इस आतंक की तोड़ न जाने कब निकले ! एक और
त्रासदायक स्थिति है – वह है आकाश छूतीं मंहगाई जिसका जिक्र ‘मंहगाई के नाम पत्र’
(अरुण गौड़) में किया गया है | यहाँ आम जनता पर मंहगाई के दुष्प्रभाव का अंकन किया
गया है साथ ही इससे अप्रभावित नेताओं और अधिकारियों पर भी बेबाक टिप्पणी की गई है
|
पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ में संकलित जागरूक एवं
संवेदनशील नई पीढ़ी की रचनाएँ आश्वस्त करतीं हैं कि संवेदना के सागर में कुछ जल अभी
शेष है जो संभवतः एक उम्मीद जगाती है सुव्यवस्था के पुनः आगमन की |