Saturday, March 21, 2020

धूप ने कविता लिखी है ( तेवरी)

हिंदी साहित्य की काव्यधारा तेवरी और प्रतिरोध संस्कृति

(‘धूप ने कविता लिखी है’ के संदर्भ में)

तेवरी काव्यधारा समकालीन कविता की वह नव्यतम धारा है जिसका अक्षर-अक्षर सकारात्मक परिवर्तन की चाह लिए प्रबल प्रतिरोध का द्योतक प्रतीत होता है | चहुंमुखी शोषण और अव्यवस्था से उपजे दुर्दशापूर्ण क्षणों के सजीव चित्रण के साथ ही यहाँ उन अमानवीय क्षणों के कारक तत्वों के प्रति मन-मस्तिष्क को झकझोरने में सक्षम प्रतिरोध का स्वर भी सुनाई देता है | सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, वैयक्तिक एवं अन्य परिस्थितिजन्य स्तर जहाँ कहीं मानवता पर संकट की संभावना है - तेवरी काव्यधारा में उसके लिए आक्रोश सहित विरोध का स्वर उपस्थित है | वर्तमान के दमघोंटू माहौल में असहज जीवन जीता हुआ प्राणी जन समूह की सजगता की कामना करता है | ‘धूप ने कविता लिखी है’ तेवरी संग्रह की ‘आज हाथों को सुनो आरी बना लो साथयों’ (पृ.126)
शीर्षक कविता का एक अंश यहाँ द्रष्टव्य है  :
 “जो अँधेरे में भटकती पीढ़ियों का ध्रुव बने / दीप अपने रक्त से वह आज बालो साथियों / सो गए तो याद रखना, देश फिर लुट जायगा / अब उठो हर मोर्चे को खुद सँभालो साथियों “
एक मोर्चा आजादी के जंग में संभाला गया था और आज एक मोर्चा लोकतंत्र में उपजी अराजकता के विरोध में संभालना आवश्यक हो गया है | इस कार्य में जिस जागृति की आवश्यकता है उसे लाने में तेवरी की समर्थता संदेहों से परे है | आजादी के कुछ सालों बाद से ही समाज की बदलती परिस्थितियों एवं सामाजिकों के बदलते रंग-ढंग के साथ तेवरी काव्यधारा की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी | सन 1981 में यह विधिवत प्रकाश में आई |  दर्शन बेजार ने अपने आलेख संख्या बल लोकतंत्र का मूल आधारमें तेवरी विधा के आविर्भाव की घटना को उजागर किया है | उनके अनुसार, लगभग सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष पूर्व जनपद मुजफ्फरनगर के क़स्बा खतौलीमें आयोजित एक साहित्यिक विचार-गोष्ठी में श्री ऋषभदेव शर्मा देवराजतथा डॉ. देवराज ने जनसापेक्ष कविता जो कथित गजल-शिल्प में लिखी जा रही थी , को तेवरीनाम देकर एक नई विधा को जन्म दिया |”1  यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि तेवरी न गीत है और ना ही यह गजल है | अधिकांश  विद्वानों का मत है कि यह जनसापेक्ष तो है पर इसका अस्तित्व जनवादी और प्रगतिशील विचारधारा से सर्वथा स्वतंत्र है | प्रो ऋषभदेव शर्मा (1957) के अनुसार तेवरी की विशिष्टता यह है कि यह शिल्प मुक्ति का आंदोलन है | यहाँ गीत और गजल परस्पर अपने-अपने शिल्प से मुक्त हैं | “तेवरी का शिल्प बड़ी सीमा तक गीत का शिल्प भी है, केवल गजल का ही नहीं | गजल की बहुत सारी शर्तों को स्वीकार नहीं करता | गजल की सबसे बड़ी शर्त है कि गजल में एकान्विति नहीं होती | गीत की सबसे बड़ी शर्त है कि उसमें एकान्विति होती है | तेवरी की शर्त है कि पहले तेवर से अंतिम तेवर तक, एक भाव क्रमशः उद्दीप्त होता चलता है और अंतिम तेवर तक आते-आते वह पूरी तरह से पूरी रचना का जो एकान्वित प्रभाव पड़ना चाहिए उसे निष्पन्न करता है | वस्तुतः तेवरीगीत और गजल दोनों के शिल्प को फ्यूज करके नया शिल्प बनाने का प्रयास था | इसमें हम सफल भी हुए |”2 तेवरीकार ऋषभदेव शर्मा ने पुरुषोत्तम दास टंडन हिंदी भवन, मेरठ में 11 जनवरी, 1981 को ‘नए कलम-युद्ध का उद्घोष’  शीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिए तेवरीनाम प्रस्तुत किया गया |”3 इसके बाद ही 11 जनवरी 1982 को खतौली उत्तरप्रदेश से तेवरी  काव्यांदोलन की आधिकारिक घोषणा कर दी गई | इसके घोषणापत्र के लेखक प्रो. देवराज हैं |  तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक ऋषभदेव शर्मा के प्रथम तेवरी संग्रह तेवरी (देवराज, ऋषभ) का  प्रकाशन 01-06-1982 में हुआ | इस विचारधारा के प्रचार और प्रसार में नजीबाबाद में 24-01-1982 को आयोजित तेवरी केंद्रित संगोष्ठी का अवदान अविस्मरणीय है | इसके बाद तो तेवरी काव्यांदोलन से जुड़ी गोष्ठियाँ समय-समय पर होती रहीं | इन सबका विशद् तथ्यपरक वर्णन आचार्य ऋषभदेव शर्मा ने अपने आलेख “तेवरी काव्यांदोलन : उद्भव और विकास” में किया है जो संदर्भित पुस्तक का एक अंश (पृ. 160-168) भी है परंतु इसका मूल स्रोत सन 1994 में प्रकाशित इनकी पुस्तक “हिंदी कविता – आठवाँ नवां दशक” है |   
तेवरी काव्यधारा की समर्थक आरंभिक पत्र-पत्रिकाओं में कुछ के नाम इस प्रकार हैं – “तेवरी पक्ष, सम्यक, जर्जर कश्ती, कुंदनशील, कल्पांत, हस्तांकन, दैनिक पंजाब केसरी, साप्ताहिक हिंदुस्तान, युवाचक्र, शिवनेत्र, संवाद, मंथन, उन्नयन, सर्वप्रिय, सहकारी युग, सारिका, अंतर्ज्वाला, इत्यादि | “तेवरी पक्षपत्रिका ने तेवरी का प्रवाह आज भी गतिमान कर रखा है | इसके संपादक रमेशराज हैं  |  
तेवरी काव्यांदोलन के आरंभिक समय में तेवरी काव्यधारा के अनेक सक्रिय रचनाकारों ने  बढ़ चढ़ कर अपना योगदान दिया था, उनमे से कुछ के नाम यहाँ उल्लिखित हैं पवन कुमार पवन, विनीता निर्झर, ऋचा अग्रवाल, राजश्री रंजिता, राजेश महरोत्रा, गिरिमोहन गुरु, दिनेश अंदाज, ब्रजपाल सिंह शौरमी, हरिराम चमचा, तुलसी नीलकंठ, रघुनाथ प्यासा, श्याम बिहारी श्यामल, विक्रम सोनी, जगदीश श्रीवास्तव, गजेंद्र बेबस, विजयपाल सिंह, अनिल कुमार अनल, अरुण लहरी, गिरीश गौरव, योगेंद्र शर्मा, सुरेश त्रस्त, शिव कुमार थदानी इत्यादि | आज भी देश के कोने-कोने में धारदार तेवरियाँ लिखी जा रहीं हैं | हिंदी साहित्य में तेवरी काव्यधारा का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण घटना है जिसका हिंदी साहित्येतिहास में अंकन होना चाहिए ताकि हिंदी साहित्य की यह महत्वपूर्ण निधि भविष्य में सुरक्षित रहे और सर्वसुलभ हो | साहित्य की समृद्धि और सामाजिकों के मन का परिष्करण करती तेवरियां आज भी समय की जरुरत हैं |
 वर्तमान समय में तेवरी को अविराम गति प्रदान करनेवालों में उल्लेखनीय नाम हैं : दर्शन बेजार, रमेशराज और ऋषभदेव शर्मा | फेसबुक और ब्लॉगों (तेवरी काव्य विधान, हिंदी तेवरी साहित्य, तेवरी, तेवरी गजल विवाद) पर भी इनकी तेवरियाँ उपलब्ध हैं | तेवरी के घोषणापत्र के लेखक एवं तेवरीकार डॉ. देवराज सहित ये तेवरीकार त्रय सम्मिलित रूप में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तेवरी काव्यधारा के  चार मजबूत आधार स्तंभ हैं |  इनमें रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह हैं – “सिस्टम में बदलाव ला, घड़ा पाप का भर रहा, धन का मद गदगद करे, रावण कुल के लोग, ककड़ी के चोरों को फांसी,  दे लंका में आग,  होगा वक्त दबंग,  आग जरुरी,  मोहन भोग खलों को,  आग कैसे लगी,  बाजों के पंख कतर रसिया,  जय कन्हैयालाल की, ऊधौ कहियो जायइत्यादि | इनके समस्त तेवरी संग्रहों का संकलन भी  रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रहनाम से सन 2015 में सार्थक सृजन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है | इन्होने लंबी तेवरी, तेवरी शतक और द्विपदी के साथ ही हाइकु भी लिखा है | इनके द्वारा संपादित तेवरी संग्रह हैं : अभी जुबां कटी नहीं (1982), कबीर जिंदा है (1983), इतिहास घायल है (1984) इत्यादि | दर्शन बेजार के चर्चित तेवरी संग्रह हैं – एक प्रहार लगातार (1985), देश खंडित हो न जाए (1989), ये जंजीरें कब टूटेंगी (2010), खतरे की भी आहट सुन (प्रकाशनाधीन, सार्थक सृजन प्रकाशन, अलीगढ़) इत्यादि | आचार्य ऋषभदेव शर्मा के चर्चित तेवरी संग्रह और तेवरी समीक्षा ग्रंथ हैं – तेवरी (1982), तेवरी चर्चा (आलोचना : 1987), तरकश (1996), देहरी (स्त्रीपक्षीय कविताएँ : 2011), धूप ने कविता लिखी है (2014) इत्यादि |
‘तेवरी’ शब्द में निहित अर्थ गांभीर्य को तेवरी के घोषणापत्र में स्पष्ट किया गया है | संदर्भित पुस्तक में उद्धृत घोषणापत्र के एक अंश को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है जिससे इस काव्यधारा का स्वरूप पूर्णरूपेण स्पष्ट हो जाएगा, द्रष्टव्य है – “ऐसी कविता जो नंगी पीठ पर पड़ते हुए कोड़े की आवाज, पिटते हुए व्यक्ति के मुख से निकली हुई आह-कराह, भरी सभा में भोली जनता के सामने घड़ियाली आँसू बहाता और कभी न पूरे होने वाले आश्वासन देता हुआ नेता, भूखे बच्चे को बापू के आने का विश्वास दिलाती हुई महिला का स्वर, रोटी माँगती हुई बच्ची, सेवायोजन कार्यालय के सामने खड़े-खड़े थकने पर सारी व्यवस्था को गाली देता हुआ नवयुवक, सुविधाओं के अभाव में आत्महत्या करता हुआ वैज्ञानिक तथा इन सब स्थितियों के विरुद्ध मनुष्य के भीतर लावे की तरह बहने वाला असंतोषजन्य आक्रोश – इन सब को एक साथ प्रभावशाली रूप में अभिव्यक्ति प्रदान कर सके, निस्संदेह ‘तेवरी’ है |”4 वास्तव में तेवरीकार प्रकाश प्रहरी बनकर अपनी तेवरियों के माध्यम से कृत्रिम उजालों से चुँधियाई आँखों को चमकरहित सच्चाई दिखाने का उद्दयम ही कर रहे हैं |
“हम प्रकाश के प्रहरी निकले, कलमें तेज दुधारी ले / सूरज इतने साल गह चुका, राहु-केतु को गहना है ” (पृ.25, बौनी जनता ऊँची कुर्सी प्रतिनिधियों का कहना है )

एक नई क्रांति की आवश्यकता जताते हुए कपनी कलम शक्ति से एक परिवर्तन मानवता  के हित में, देश के हित में, समाज के हित में और विश्व बन्धुत्व के हित में लाना इनका यथेष्ट प्रतीत हो रहा है |
“  हाथ कटेंगे अगर कलम ने, सच लिखने की ठानी / करो फैसला, झूठ सहो या सच के लिए मरोगे.../ यह गूँगों की भीड़ कि इसकी, वाणी तुम्ही बनोगे / राजपथों से फुटपाथों के हक के लिए लड़ोगे” (पृ.30, कुर्सी का आदेश कि अब से मिलकर नहीं चलोगे)
इस परिवर्तन के लिए निडरता को चुनना जितना आवश्यक है वर्तमान परिस्थितियों में उतना ही जानलेवा भी | सत्य का पथ संघर्ष और कष्ट का पथ अवश्य है साथ ही यह है आत्मोन्नति और आत्मिक आनंद का पथ भी है | मानवता के रक्षार्थ भी यही आवश्यक है | आचार्य ऋषभदेव शर्मा अपनी तेवरियों में स्पष्ट कहते हैं कि जो भूमि पर गिरेगा उसे भीड़ न उठाएगी, ना ही उठ कर संभलने का मौका देगी | इसलिए सच के पक्ष में डट कर खड़ा होना ही श्रेयष्कर है | पर लोकतंत्र में चुनाव की स्वतंत्रता भी है | चयन अपना-अपना - स्वाभिमान या दुत्कार ! अलगाव या एकता ! विश्वास या अविश्वास ! सत्य और भ्रम के मध्य आँख खोलकर चुनना है | धर्म, जाति, संप्रदाय, भाषा और न जाने कितने गढ़ों का निर्माण अपनी तुच्छ स्वार्थपूर्ति हित महत्वाकांक्षी और वोट के भूखे लोगों द्वारा किया गया है | देखें : “मस्जिद में अल्लाह न बोला , राम न मंदिर में डोला / खून किया धर्मों ने अपना, आज शहर में कर्फ्यू है / संप्रदाय की मदिरा पीकर, आदम आदमखोर हुआ / छाया पर विश्वास न करना, आज शहर में कर्फ्यू है / नोट-वोट का शासन बोले, अलगावों की ही भाषा / इस भाषा को हमें बदलना, आज शहर में कर्फ्यू है” / (पृ.15 घर से बाहर नहीं निकलना आज शहर में कर्फ्यू है )
जनता अनजान नहीं है | वह इनके इरादों से वाकिफ है | पर हर बार चुनावी जाल में इन मछुआरों के हाथ से फँस ही जाती है | इस स्थिति से उबरने का आगाज करती हैं तेवरियाँ | प्रेमचंद का होरी, धनिया, झुनिया, गोबर इन तेवरियों में भी जीवित हैं | देखें : “गोबर कहता है – संसद को और नहीं बनना दूकान / परचों पर अब नहीं लगेंगे, आँख मूंदकर और निशान” (पृ.133 गाँव गाँव से खबर मिल रही सुनियो पंचो देकर ध्यान )
कवि स्थिति की मार्मिकता को समझ कलमकरों का आह्वान करते हैं | कलम की शक्ति ने अंग्रेजों को भी हिला दिया था तभी “सोज़े वतन” को जब्त कर लिया गया था | यह भी सच है कि आग उगलते स्वर वाले लेखक और उनकी बिना बिकी हुईं कलमें खतरे के दायरे में आतीं हैं | लोकतंत्र का हित ही सर्वोपरि है | देखें :  “वे सूत्रधार संप्रदाय-युद्ध के बने / बस एकता-अखंडता जिनका बयान है / गूंगा तमाशबीन बना क्यों खड़ा है तू / तेरी कलम, कलम नहीं, युग की जबान है” (पृ.95, कुछ लोग जेब में उसे धर घूम रहे हैं)
“सीने को वे सी रहे, तलवारों से होंठ / गला किंतु गणतंत्र का, नहीं सकेंगे घोट / जिनका पेशा खून है, जिनका ईश्वर नोट / उन सबको नंगा करो, जिनके मन में खोट” (पृ.115, पग-पग घर-घर हर शहर ज्वालामय विस्फोट)
जनता का सेवक बन सत्ता में जाने वालों और उनके सहायक-तंत्र की संवेदनहीनता का चरम ही तो है कि कहीं पेट मेज बने हुए हैं और कहीं आंतें अकड़ी हुईं हैं | हर साल लोग बाढ़ की यंत्रणा झेलते हैं, सम्मानित शासकीय लोग कभी सरकारी तो कभी निजी विमानों में बैठ आपदाग्रस्त इलाकों का दर्शन कर लेते हैं | आश्वासन दे चले जाते हैं और अगले वर्ष फिर सामान्य जनता तबाही का सामना करती है किसी ठोस और असरकारी कदम  के अभाव में | देखें : “खील बताशों का क्या कहिए, चना चबेना के लाले हैं / उनका भोजन मुगलाई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है / डूब रहा नेल्लूर, महोदय, वायुयान से देख गए हैं / बाढ़ प्रकाशम में आई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है / घोर तबाही चक्रवात में, टूट गए घर, खेत बह गए / उनसे मेंढ़ न बंध पाई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है” (पृ.16 केवल कुर्सी पगलाई है, बाकी सब कुछ ठीक ठाक है )
“कुर्सियों पर लद गया है बोझ नारों का / यार, ये विकलांग नायक ठेलने होंगे” (पृ.105, क्या पता था खेल ऐसे खेलने होंगे)
मानवता के हित में ऐसे विकलांग नायकों और संवेदनहीन व्यवस्था के प्रति तेवरी में मुखर प्रतिरोध है | दलितों और शोषितों के हित में यहाँ पूंजीवादी व्यवस्था से भी विरोध है | गरीब आदमी अपने बच्चों का कंकाल देख मन मसोसता है कि अपना रक्त और अपनी हड्डी गलाकर भी वह अपनी जरूरत नहीं पूरा कर पाता है और अमीरों के पालतू जानवरों के शौक पूरे हो रहे हैं | रक्तजीवियों के यहाँ सुविधा है, उल्लास है, पर्व की रौनक है | उसी रौनक को पाने की आस में महानगरों में आया गरीब सपरिवार चिथड़ों की शरण में है |
 देखें :  “टॉमियों औ’ रुबियों को टॉफियां वे बाँटते हैं / जबकि कल्लू और बिल्लू कागजों को चाटते हैं / रक्त पीकर पल रही है रक्तजीवी एक पीढ़ी / जबकि अपनी देह की हम आप हड्डी काटते हैं ” (पृ.84, टॉमियों औ’ रुबियों को टॉफियां वे बाँटते हैं )
 “कांख में खाते दबाए आ गया मौसम / खून से वे भर रहे हैं ब्याज होली में / चौक में है आज जलसा भूल मत जाना / भूख की आँतें बनेंगी साज होली में” (पृ.36, हो गए हैं आप तो ऋतुराज होली में )

“कितनी कुटियों में नहीं हुई दीया-बाती / क्यों भला हवेली बिजली की दीवानी है / रग्घू की माँ तो चिथड़ों से गुदड़ी सीती / शोषण की साड़ी में पर दिल्ली रानी है” (पृ. 97, अम्मृत के आश्वासन देना नादानी है)
सारा बवाल रोटियों का है | किसी के पास रोटी का एक टुकड़ा भी नहीं है और किसी ने अपनी सात पुश्तों के लिए रोटियों का इंतजाम अभी से कर रखा है | भाव और अभाव के सामाजिक द्वंद यज्ञ में बलिपशु कौन ? मानव और मानवता ! आदमी का वजन अब हवा से भी हल्का हो गया है | तभी तो इंसान के वजूद और रोटी के हक में  कवि घातक बुर्जों को ढहाने की बात करते हैं | वे भयावह शब्द जिनसे वर्षों बाद सामना होना है क्यों न उसका सच्चा स्वरूप बचपन से ही सिखा दिया जाए ताकि जब चयन की बात हो तब आसानी हो |
“गा” गोली, “बा” बंदूकें, ‘खा’ से खून-पसीना / ‘रा’ रोटी, ‘आ’ आग और ‘ला’ लहू पढ़ाओ रे / अब और न तश्तरियों में यह जिन्दा मांस सजे / रोटी के हक की खातिर तलवार उठाओ रे  ( पृ.60 जलती बारूद बनो अब बुर्जों पर छाओ रे )
भूमंडलीकरण के दौर में नित नई विदेशी भाषाओँ और संस्कृति से लैस स्कूलों का खुलना अच्छा है पर ऐसे में जमीनी शिक्षा जिसमें भारतीय भाषाओँ और संस्कृति का अनवरत कारगर प्रवाह हो, ऐसी ही शिक्षा मनुष्यता के हित में महत्वपूर्ण है | तेवरी के माध्यम से कवि ने दलित स्त्री का प्रतिरोध भी जाहिर किया है, द्रष्टव्य है :
 “ भील-युवती ने कहा कल ग्राम मुखिया से / मार खाओगे अगर अब हाथ डाला तो” (पृ.22, क्या हुआ जो गाँव में घर घर अँधेरा है )
इसके साथ ही दुलहिन की शृंगार सामग्री को परंपरागत बंधन कहा है | लोकतंत्र की लंका में हावी चतुर्दिक आशंका, अविश्वास, मूल्यहीनता, चाटुकारिता, अवसरवादिता, अफसरशाही, पूंजीवादी तानाशाही   और इन सबकी उपज जन के मन का घोर भय – उस भयाक्रांतता और उसके समस्त कारणों के  अंतकामी अग्निधर्मा तेवरियाँ “धूप ने कविता लिखी है” तेवरी संग्रह में हैं | व्यर्थ की नारेबाजी की जगह ठोस हल खोजने की जरूरत की ओर हमारा ध्यान खींचती हुई तेवरी में धार्मिक उन्माद का भी विरोध है | साधुत्व वेश में नहीं अंतर्मन में हो तब ही सच्चा है | समय साक्षी है धर्मजगत की आड़ में पल रहे अपराधों की |  देखें : बाजों के मुँह खून लगा है, रोज कबूतर वे मारेंगे / आप मचानों पर चुप बैठे, कैसा पुण्य लाभ लहते हैं (पृ.113 योगी बन अन्याय देखना इसको धर्म नहीं कहते हैं )
योगी स्वामी विवेकानंद भी थे | उन्होंने कहा था, “जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा रहेगा, मेरा धर्म उसके लिए भोजन जुटाना होगा |” आज तो भूखे नरकंकालों की महाभीड़ है | असली मानव धर्म और राष्ट्र हित भूलकर न जाने हम किन चक्करों में पड़े हैं | प्रतिरोध के स्वर में तेवरी सच का साक्षात् कराते हुए इन चक्करों से आजाद कराने की कोशिश करती है | कुर्सी और जूतों की घनिष्ठता से आम आदमी बेहाल है | वह अपने उपर हो रहे जुल्म से निजात पाने कहाँ जाये ? इस विवशता का अंत देखें : “नाच रहा कानून जुर्म की महफ़िल में मदिरा पीकर / उन्हें बता तो : किंतु दुपहरी तम की दास नहीं होगी / जनमेजय ने एक बार फिर, नागयज्ञ की ठानी है / नियति धर्मपुत्रों की फिर से, अब वनवास नहीं होगी” (पृ.32, गलियों की आवाज आम है माना खास नहीं होगी )
दूसरी तरफ तकनीकी उन्नति के दौर में अपने कुदाल-फावड़े के संग अपने को पिछड़ा महसूस करते हुए वे किसान हैं जो हमारे लिए अन्न उपजाते हैं | इस खाई का प्रतिरोध और समन्वय की कवायद जो आम आदमी के अस्तित्व रक्षण हित में है, यहाँ स्पष्ट उजागर हुई है |
“मुझ गंवार का प्रश्न यही है संसद से, सचिवालय से / लोक गँवा के तन्त्र बचा के , क्या, उत्ती के पाथोगे “



संदर्भ सूची :

1.       बेजार, दर्शन, 13-07-2016, संख्या बल लोकतंत्र का मूल आधार, hinditewari-29.blogspot.in
2.       सिंह, डॉ. विजेंद्र प्रताप. ऋषभदेव शर्मा का कवि कर्म (2015), नजीबाबाद : परिलेख प्रकाशन, पृ.122
3.       शर्मा, डॉ.ऋषभदेव, हिंदी कविता : आठवाँ नवां दशक, 1994, खतौली : तेवरी प्रकाशन, पृ. 150
4.       शर्मा, डॉ.ऋषभदेव, धूप ने कविता लिखी है, 2014, हैदराबाद : श्रीसाहिती प्रकाशन, पृ. 163