Monday, October 10, 2016

उत्तर आधुनिक साहित्यिक परिदृश्य : गर्भ में


                  आशाएँ अभी शेष हैं : गर्भ में  
                                          चंदन  कुमारी                        
तेलंगाना के युवा हिंदी कवि ‘ कुमार लव ‘(1986) कविता के साथ ही लघुकथा, कहानी व उपन्यास जैसी अन्य साहित्यिक विधाओं में भी अपनी दखल रखते हैं | एक सक्रिय ब्लॉगर के रूप में भी इन्होंने अपनी पहचान बनाई है | अल्पायु में ही लगभग 500 से भी अधिक कविताएँ रचनेवाले इन्हीं कवि की नई नकोर कविताओं का संग्रह है “ गर्भ में “(2015)|
एक जीव के जीवन पथ पर अग्रसर होने का प्रथम बिंदु है ‘ गर्भ ‘ और काव्य संग्रह “गर्भ में” उस पथ की खट्टी-मीठी-कड़वी अनुभूतियों का सहज बोधगम्य पाठ है | कुल 79 कविताओं का यह संग्रह छः खंडो में विभाजित है जो इस प्रकार हैं – 1. विसंवाद (13 कविताएँ) 2. किसलिए (8 कविताएँ) 
3. धमनी विस्फार (11 कविताएँ) 4. क्रोकोडाइल (9 कविताएँ) 5. कत्तनवाली (18 कविताएँ) 6. हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया (20 कविताएँ) |
“गर्भ में” (2015) में संग्रहित कविताओं की अपनी विषयगत विविधताएँ हैं | इन कविताओं में स्वप्न भी बुना जा रहा है और यथार्थ भी जिया जा रहा है | बदहाल समाज, किशोरवय का रोमानीपन, मानसिक कुंठा और स्वतंत्र व सशक्त मन का आह्लाद – सभी कविताओं के जरिए अभिव्यक्त हो रहे हैं | इन विविधताओं के साथ ही इन कविताओं में एक साम्यता है | वह साम्यता है – उत्तरआधुनिक साहित्यिक परिदृश्य की उपस्थिति ! इस उपस्थिति को जानदार बनाने के लिए दृश्य और अदृश्य जगत को मिलाकर, अतीत और वर्तमान के संदर्भो को जोड़कर कई अभिनव प्रयोग किए गए हैं | अपने प्रयोगों की साहित्यिक दुनिया को कवि ने दैनंदिन जीवन के आम क्रियाकलापों से भी जोड़ा 
है | द्रष्टव्य है – “ खिचड़ी की थाली-सा चाँद मुझे चिढ़ाता रहा | “ (सपनों की टोली, पृ.115) | यहाँ ‘चिढ़ाने ‘ शब्द के लिए ‘खिचड़ी की थाली ‘ का प्रयोग किसी लोकगीत का स्मरण कराते हुए भी चिढ़ाने के संदर्भ में सर्वथा नवीन है और सटीक भी | पुनः देखें- “ अश्वमेध” (चार आँखों वाला कुत्ता, पृ.135) की तर्ज पर “ नरमेध “ (मुखिया जी,पृ.75) शब्द का प्रयोग न सिर्फ नयापन लिए हुए है वरन यथार्थ के नग्न चित्र की उपस्थिति का सूचक भी प्रतीत होता है |
सरल शब्दों में रची गई इन कविताओं में निहित अर्थ गाम्भीर्य वैयक्तिकता और सामाजिकता से जुड़े अनगिणत त्रासदीयुक्त यथार्थों की सहज अभिव्यक्ति जान पड़ते हैं | इन्हीं सहज अभिव्यक्तियों के आवरण में लिपटा है विचारों का वह वबंडर जो सुप्त चेतना को जगाना चाहता है | द्रष्टव्य हैं कुछ ऐसे यथार्थ –
    1.      कल यह भी बन सकती है एक नंबर       
    4, 5, 6, 10, 12
    या अब तक दिखी सबमें
    सबसे भयावह, the worst
                  (कीचड़ में नन्ही पड़ी ,पृ.48)
 2.      उलटे उसने कहा
    यहाँ नहीं !      (उलटी ,पृ.77)

 3 . माथे पर इनके
           गुदा है
     सोच जहाँ से निकल गई है
     और प्रोग्राम  अंदर बैठ गया है | (घृणातीत, पृ.47)

 4 . गंध आती भी है तो
     कुत्ते की होगी सोच
        कोई देखता नही !  (द्वंदातीत पृ.34)

 5. टी वी पर एक कवि का खून बह रहा था
         कुछ पल्ले नहीं पड़ा
            मुँह फेर
         फिर सो गया |    (विसंवाद पृ.22)

जगबीती प्रतीत होने वाली ये सारी बातें और ऐसी कई अन्य बातें जिनका उल्लेख यहाँ नहीं है परंतु समीक्ष्य कृति ‘ गर्भ में ‘ में है किसी-न-किसी की आपबीती हैं | त्रासदी यह है कि समाज भावधर्माओं का समाज बनता जा रहा है जहाँ इन तथ्यों की अद्यतन जानकारी रखना भर पर्याप्त
है |  जल में डूबते डंक मारने वाले जीवों की रक्षा करने वाले मनुष्यों की मनुष्यता आज स्वतः डूबती मालूम पड़ती है| एक निपुणता हाथ लगी है ! अवसर को लोक लेने की कला में माहिर होते मनुष्य आसानी से अपनत्व भी भूल जाते हैं | देखें –
 “छोड़ आए थे उसे अकेला / वही सब जिन्हें बचाने को / रुका था वह वहाँ!” (किसलिए,पृ.44)
मित्रता का ऐसा हश्र देख कवि मन को अनगिणत कलिकाओं वाले आलू का संग भला लगता है | सच्ची मित्रता तो बस हो जाती है वहाँ सोच-विचार की गुंजाइश नहीं होती | कवि कहते हैं-“ देखते रहते सदा /अनगिणत छोटी आँखों से मुझे /पागल समझ फिर भी कभी मुझ पर हँसते नहीं” (मेरे दोस्त आलू,पृ.126) |
जीवन के रंगमंच पर मनुष्य रूपी कठपुतली का खेल है यह संसार जहाँ किसी के हिसाब से कुछ नही घटता है | कहना गलत न होगा कि चाँद के लिए सही नाप का झिंगोला सिला जाना जितना मुश्किल है उतना ही मुश्किल है इस संसार में इंसान के लिए खुद को फिट कर पाना | कुमार लव के शब्दों में – “ जहाँ जकड़नी चाहिए मुझे / वहाँ तो बहुत ढीली है,/ वरना – बहुत ही तंग,/ बहुत तंग | (गलत नाप, पृ.40)|
कविता “हूँ – 2” (पृ.59) ‘ अति संघर्षण जौं कर कोई अनल प्रगट चंदन ते होई ‘ वाली उक्ति  का स्पष्टीकरण प्रतीत होता है | ” तेरे कैनवास दे उत्ते “ (पृ.84-85) शीर्षक कविता में सपने और अधबने रिश्ते के बीच की सच्चाई को कहने की कोशिश झलकती है | कई कविताएँ हैं जिनमें कवि ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि किस कदर शब्द खामोशी में अंतर्हित हो गए हैं और प्रेम का चांचल्य शिथिल पड़ गया है | इस काव्य संग्रह की “उल्लंघन” (पृ.59) शीर्षक कविता जहाँ सरदार भगत सिंह के जन्मदिन से संबद्ध है तो वहीं “Rimbaud” (पृ.66) का संबंध फ्रेंच कवि आर्थर रिमबाउड से है | संग्रह की कुछ कविताएँ बहुत छोटी व कुछ लंबी भी हैं |
समीक्ष्य काव्य संग्रह का शीर्षक ” गर्भ में “ मुझे आशावाद का द्योतक जान पड़ता है और पूर्णरूपेण सार्थक भी ! गर्भ के भीतर की दुनिया कितनी अंधेरी होती है ! पर उसके भीतर पलता भ्रूण अकुलाता नहीं ! वह वहीं अपनी सुरक्षा को महसूसता हुआ पलता रहता है , कुछ इस तरह – “अँधेरा छाता 
रहा / गर्माहट आती रही / और मैं छुप गया / उस गर्भ में / सुरक्षित / पूरी तरह से | ” (गर्भ में, पृ.131) |
इस पुस्तक की भूमिका (पृ.xiii) में प्रो. गोपाल शर्मा के उद्गार – “ ... कुमार लव ने यह सृष्टि रचकर प्रजापतित्व (अपारे काव्य संसारे कविरेव प्रजापतिः) प्राप्त किया है , इसमें संदेह नहीं| “ के लिए कुमार लव निश्चित ही बधाई के पात्र हैं |
देरिदा के विखंडन के सिद्धांत में अब्राम्स के अनुसार दो पाठों की बात की गई है| पहला अनुकूल पाठ रचयिता के आशय के पास पहुँचने की कोशिश करता है तो दूसरा प्रतिकूल पाठ उसके द्वारा दबाए गए आशयों को खोजता है | ऐसे में सहज संभव है कि व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण के अनुसार एक ही कृति के कई पाठ हों| हर कोई अपना पाठ बना सके इसके लिए आवश्यक है कवि के पाठ में प्रवेश करना ! आएँ चलें गर्भ में !
समीक्षित कृति : गर्भ में / कवि : कुमार लव / संस्करण : 2015 / मूल्य : 300 रु / प्रकाशन : तक्षशिला प्रकाशन/ पृष्ठ संख्या : 136 |