Tuesday, January 30, 2018



हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
                                                     
आउटलुक पाठक साहित्य सर्वे 2011 के अनुसार ‘अनामिका’ सबसे प्रिय महिला कवि हैंI ‘कवि ने कहा’ शृंखला - संपादक ‘मदन कश्यप’ इनकी कविताओं में महादेवी वर्मा की घनीभूत पीड़ा एवम् करुणा का विस्तार देखते हैंI कविता के साथ साहित्य की अन्य विधाओं (निबंध,आलोचना,विमर्श,कहानी,उपन्यास ,संस्मरण,अनुवाद) में भी जीवन और जगत से जुड़े मार्मिक भावों की सरल और सहज भाषा में सफल अभिव्यक्ति देती हैं ‘अनामिका’ I
इनकी कृति ‘कवि ने कहा : अनामिका’ (2008) में सिर्फ स्त्री ही नहीं बल्कि परिधि पर खड़े सारे बिंदुओं को समेटने की कोशिश की गई है तथापि केंद्र ‘स्त्री’ हेतु सुरक्षित हैI इस स्त्री में अबलापन नहीं है, एक बिंदास अंदाज है जिससे स्त्री जीवन की कहानी में लगे ‘हाय’ शब्द का अस्तित्व ही डांवाडोल हो गया हैI उसका स्थान ‘हलो’ ने ले लिया है – “अबला जीवन ,हलो, तुम्हारी यही कहानी!/ ‘मुख पर डारे’ छोटी-सी मुस्कान / सुनो सब आनी-बानी!”/ (घूंघट के पट खोल रे, पृ. 70)I
इनकी संवेदनशील दृष्टी में यथार्थ और कल्पना का बेजोड़ संगम है, जो एक ओर हृदयस्पर्शी है तो दूसरी ओर मानवीय चेतना को झकझोरने में सक्षम भीI निर्जीव फर्नीचर का शापित प्रेमी होना एक कल्पना है, किंतु इसके साथ वर्तमान गृहस्थ जीवन में स्त्री – पुरुष के रिश्ते का यथार्थ जुड़ा हैI द्रष्टव्य है –“किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फर्नीचर,/ कठुआ गए होंगे किसी शाप से ये !/...जब आदमी ये हो जाएँगे,/ मेरा रिश्ता इनसे हो जाएगा क्या /वो ही वाला /जो धूल से झाड़न का ?” (फर्नीचर, पृ. 13)
 बेरुखी और मनस्ताप के इस रिश्ते में मन मार कर जीती स्त्री किस कदर एकांत क्षणों में भी दंभी पुरुष के फ्रस्ट्रेशन का शिकार होती है, देखें- “पाते ही कोना अकेला /दांत पीसकर कोहनी मारना और कहना -/ ‘सारी ये झंझट तुम्हारी उठाई हुई है ,/आफत का परकाला हो तुम ही !’ “ (कुहनियाँ , पृ.64)
 आज पौरुष अगर इसी अर्थ में बाकी है फिर कायरता भली ! माँ का आँगन छूटने के पश्चात् मिलने वाली नाजायज यातनाओं का प्रतिकार करने हेतु नारी शक्ति एवम् मानवीय विचारधारा के पोषक तत्व निरंतर तत्पर हैं I लेकिन उस लैंगिक भेदभावयुक्त व्यवहार का क्या जो घर की छत के नीचे हर पल किया जाता है ! मासूमों की मासूमियत को हरनेवाला यह पारिवारिक मापदंड कितना असहनीय है – “ ‘राम, पाठशाला जा !/ राधा, खाना पका !/ राम, आ बताशा खा !/ राधा, झाड़ू लगा !” ( बेजगह ,पृ. 11)| अहोभाग्य कितना दुलार पा रहे हो राम ! आनेवाले समय में इस दुलार का  
क्या प्रत्युत्तर मिलेगा सबको पता है | ‘दुलारू राम‘ जब ‘कमाऊ राम’ बन जाते हैं तब इनके फुर्सत के दो पल भी इनके वृद्ध अभिभावकों को मुश्किल से नसीब होते हैंI इन बूढी मांस-अस्थियों के ढांचे के नसीब में होता है-घर का एक निर्धारित कोना जहाँ सारे घरेलू कामों को निपटाना इनकी अनचाही पर अनिवार्य जिम्मेदारी हैI ऐसे में ये लहूलुहान हृदय और पथराई आँखें किन्हें भला कहेंगी ! “उन्हें सबसे अच्छे लगते हैं वे लोग / जो पास नहीं आते और कभी जान नहीं पाते/ कि छाले हैं छालों के भीतर ( वृद्धाएँ, पृ.82)I
जीवन के अंतिम चरण में भरेपूरे परिवार के मध्य अकेलेपन का दंश झेलती पीढ़ी की पीड़ा की अनुभूति से अभिभूत छोटी बच्ची का निम्न कथन यह संदेश देता प्रतीत हो रहा है कि बेटियों के साथ माँ-बाप अधिक सुरक्षित हैं  –“माँ, तुम बूढी मत हो जाना कभी !/...क्या पता –मैं कभी स्कूल में होउँ/और मच जाए भगदड़/तो कौन तुमको बचाएगा ?”(पत्ता-पत्ता ,बूटा –बूटा ,पृ-44)
माँ-बेटी के मध्य स्नेह की कड़ी के रेखांकन के पश्चात् अनामिका स्त्री के जीवन में ‘नैहर‘ के महत्व का रेखांकन करने हेतु विशिष्ट विशेषण ‘अगरधत्त अंगराई’ का प्रयोग करती हैंI प्रयुक्त विशेषण में निहित निश्चिंतता असीम सा है और अनिवार्य भी परंतु क्या इसमे स्त्री की पूर्ण सुरक्षा निहित है !  दरिंदगी जहाँ पलक झपकते ही समूची स्त्री काया को निगल जाने को आतुर है वहाँ अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी स्त्री स्वयं वहन करने में सक्षम है Iऐसी आत्म सक्षम स्त्री को चित्रित करते हुए कवयित्री लिखती हैं-“ वो जोरा-जोरी कि/उफ़,अम्मा, मैंने भी/ लेकिन हथियार नहीं डाले/कि जो बाजरा कूटकर / रोटियाँ खिलाई थीं तुमने-/ मैंने उनकी /सैरियत तो दी-“(केरल की एक लोकधुन पर आधारित,पृ. 66 )
हमेशा कहाँ सध पाती है यह पराक्रमशीलता ! परिणामस्वरूप स्त्रियाँ चकलाघरों की रौनक बन घुटने को विवश हैं I इनकी विवशता की पराकाष्ठा है -‘इस घुटनचक्र के कर्ता-धर्ता-भोक्ता के अमानवीय कुतर्क’ , देखें-“ ‘जिंदगी, इतनी सहजता से जो हो जाती है विवस्त्र/ क्या केवल मेरी हो सकती है?’ ”(चकलाघर की एक दुपहरिया, पृ.105)
इस समाज के जेहन में यह क्यों नहीं कौंधता कि जिंदगी की विवस्त्रता का उत्तरदाई कौन है ? मनुष्यता किसी कोने में बाकी होगी तो यह प्रश्न अवश्य झकझोर देगा हृदय को अन्यथा इस समाज में ‘बुद्ध’ सा बिड़ला कहाँ जिनका हृदय इन आम्रपलियो के लिए सखाभाव से ओतप्रोत हो! द्रष्टव्य है –“पर बुद्ध ने मेरा मान ही रखा / और कहा- ‘रह जाएगी करुणा, रह जाएगी मैत्री,/ बाकी सब ढह जाएगा...’ “ (आम्रपाली,पृ. 88) I स्त्री-पुरुष के मध्य सखाभाव का विस्तार होना स्वस्थ समाज हेतु अनिवार्य हैI इस लक्ष्य की पूर्ति कर सकना बहुत सरल नहीं है कारण कि पुरुषवादी मानसिकता स्त्री-पीड़ा जनित कराह से तृप्त होने का आदी हो चुका है I “और इस पूर्ण रास के साक्षी-तारे /टभ- टभ टभकते हैं भर –रात/ पीठ पर /फफोलों के मानिंद ! (चोटें, पृ.81)I कृति की ‘जुएँ’ एवं ‘चिट्ठी लिखती हुई औरत’ कविताओं में जिस ‘खटराग’ एवं ‘शताब्दियों का संचित ‘ की बात की गई है वह स्त्री की इसी कायिक पीड़ा की मानसिक वेदना का प्रतीक जान पड़ता हैI इन यंत्रणा अधिकारियों को किस दृष्टीकोण से ‘पति’ या ‘पुरुष’ की श्रेणी में रखा जाए? समय सकारात्मक दिशा में बदल रहा है I स्त्रियाँ अपने अस्तित्व को तवज्जो दे रहीं हैं और सामनेवाले से भी उनकी यही अपेक्षा है –“ हम भी इंसान हैं-/ हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर /जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद /नौकरी का पहला  विज्ञापन!/ देखो तो ऐसे /जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है /बहुत दूर जलती हुई आग !(स्त्रियाँ ,पृ. 9-10)I पितृसत्तात्मक रवैयों को दरकिनार करते ही एक अनोखे सुकून का अहसास होता है, इसी क्रम में तुलसी के व्यवहार से खिन्न और आत्मविश्वास से पगी रत्नावली प्रतिज्ञाबद्ध होती हैं –“ अपने झोले में ही !/अब निकलूँगी मैं भी / अपने संधान में अकेली !/आपका झोला हो आपको मुबारक !” (तुलसी का झोला, पृ.77)I आत्मनिर्भर स्त्री की छवि की स्थापना के साथ ही अनामिका ने स्त्री शुचिता के पारंपरिक मिथक को कटघरे में खड़ा किया है I
इन्होंने वात्सल्य,बालमनोभाव, बेरोजगार की मनोदशा, सत्य के श्रेणीगत विभाजन की सत्यता, भूमंडलीकरण के दौर में दूर-दराज से आए बच्चों की अभावजन्य (घर,भाषा,धन का संदर्भ) संघर्षशील जीवनचर्या, शिक्षा-पद्धति, तथा अंग्रेजी-भाषा , जैसे विविध विषयों को समेटते हुए जीवन की सच्चाई को व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है I ऐसे में अनायास ही उनकी व्यंगात्मक दूरदर्शिता का परिचय मिल जाता है –“ भूखे ही ऐंठ रहे लोगों को भी / खाने को मिल जाता है धोखा!” (धोखा,पृ.53)
अनामिका की कविताओं से गुजरना एक खाश भाषाई दुनिया से गुजरने जैसा है जो ठेठ उनकी अपनी है I इस भाषा में जहाँ एक ओर पुराणों और मिथों के संदर्भ हैं, विदेशी साहित्य की अंतर्कथाएँ गुँथी हुई हैं वहीं भारत के गाँव,घर,दलान की सहज शब्दावली का सौंदर्य झिलमिला रहा है I उपर से अभिजात प्रतीत होनेवाली यह भाषा कई बार भीतर से देशी लगती है – एक ऐसा देशीपन जो आज दुर्लभ होता जा रहा है I कुछ शब्द देख लें – चुटपुटिया, दुधमुहाँ, इत्ती-सी, बोरसी, लव-कुश, ईसामसीह, अंचरा, चकर-पकर , काढकर, कुहनियाना, बुद्ध, आम्रपाली, भुरभुरा, राकस, दुधार, बिसात, द्रौपदी की साड़ी,सीता,कठुआ इत्यादिI एक और खाशियत इनकी कविताओं में हमारा ध्यान खींचती है –वह है स्त्री की काया भाषा का मुखर उपयोग Iइन्होंने विभिन्न भावों को प्रकट करने के लिए विविध भंगिमाओं और संकेतों का मनोरम प्रयोग किया है जिससे इनकी कविता की संप्रेषणीयता बढ़ गई है , उदाहरणस्वरूप :

1.       पैंतालीस डिग्री की अंगराई लेती है /क्या-क्या हिसाब बिठाकर ! (बम, पृ.43)

2.       इस अँधियारे कमरे में यों / टीन खुरचती आटे की ? (उड़ान, पृ.94)

3.       क्यों होती हैं उसकी आँखें/ जैसी वे होती हैं-/ तकलीफ की थोड़ी चमक/ और हल्की थर्राहट के बीच (चमक के अलावा, पृ. 121)

4.       गिरकर उठें तो कहें-‘घुटनो, धन्यवाद.../कितना अच्छा है कि/तुम फूटकर भी/फूट नहीं लेते अलग , (रियाज़, पृ.115)

5.       लाल काँच की चूडियों से/ पेंडुलम की तरह लटका/ लगातार डोलता ही रहता था/ एक जंगाया-सा सेफ्टी पिन ! (सेफ्टी पिन, पृ. 97)

6.       जोर से दहाड़ते थे मालिक और एक ही डांट पर/ एकदम पट्ट/लेट जाती थीं वे/दम साधकर, /.../रोज-रोज मरने में /एक बार शरमाती, लेकिन फिर कुछ सोचकर / मर ही जाती , (पतिव्रता, पृ.18)


[समीक्षित कृति – कवि ने कहा : अनामिका / कवयित्री : अनामिका,/ प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली,/ संस्करण :  2008,/ मूल्य : रु.150/- ]

अनामिका के साहित्य में स्त्री


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¬¸Ÿ¸¸ ˆ½Å ©¸¸½¢«¸÷¸ ¨¸Š¸Ä ˆ½Å œÏ¢÷¸ ‡ˆÅ ‰¸¸¬¸ ‚œ¸›¸÷¨¸ ‚¸¾£ ¬¸¿¨¸½™›¸¸ ˆÅ¸ ™©¸Ä›¸ í¸½÷¸¸ í¾ ƒ›¸ˆ½Å ¬¸¸¢í÷¡¸ Ÿ¸½¿— ƒ¬¸ú ª¿‰¸¥¸¸ Ÿ¸½¿ ¬¸Ÿ¸¸ Ÿ¸½¿ ¬¸¤¸¬¸½ ˆÅŸ¸¸½£ ¬¸Ÿ¸½ ¸›¸½¨¸¸¥¸½ ™¢¥¸÷¸ ¨¸Š¸Ä ¬¸½ ž¸ú ‚¢š¸ˆÅ ™¢¥¸÷¸ ¡¸½ ¢¬°¸¡¸¸½¿ ˆÅ¸½ Ÿ¸¸›¸÷¸ú íÿ— ¬°¸ú ›¸ ÷¸¸½ ‚œ¸›¸½ ¬¨¸ˆÅú¡¸¸ ³œ¸ Ÿ¸½¿ ¬¨¸÷¸¿°¸ í¾ ›¸ íú œ¸£ˆÅú¡¸¸ ³œ¸ Ÿ¸½¿— ƒ›¸ˆ½Å „œ¸›¡¸¸¬¸ `¢÷¸›¸ˆÅ¸ ¢÷¸›¸ˆ½Å œ¸¸¬¸'  ˆ½Å ˆ½¿ÅÍ Ÿ¸½¿ ¬°¸ú ³œ¸ú ¨¸½©¡¸¸ í¾, ‡ˆÅ ‡½¬¸ú ¬°¸ú ¢¬¸½ ž¸¸½Š¸›¸½ ˆÅ¸½ ¬¸ž¸ú ÷¸÷œ¸£ íÿ, ¢ˆ¿Å÷¸º „¬¸ˆÅú Ÿ¸¸›¸¢¬¸ˆÅ ¬¸¿¨¸½™›¸¸ ‡¨¸¿ ¨¡¸¢Æ÷¸÷¨¸ ¢ˆÅ¬¸ú ˆ½Å ¢¥¸‡ ˆÅ¸½ƒÄ Ÿ¸¸¡¸›¸½ ›¸íì £‰¸÷¸ú— „¬¸ˆ½Å ‚¿™£ ˆ½Å ›¸¾¢÷¸ˆÅ ÷¸½ ‚¸¾£ ᙡ¸ ˆÅú ‚Š¸¸š¸÷¸¸ ˆÅ¸½ ™½í ¥¸¸½¥¸ºœ¸ œ¸º²«¸ ‡¨¸¿ ‚¢š¸ˆÅ¸£¸¿š¸ ¬°¸ú ™½‰¸ íú ›¸íì œ¸¸÷¸ú— ‚¢š¸ˆÅ¸£ ˆ½Å Ÿ¸™ Ÿ¸½¿ û»Å¥¸ú Š¸¼í¬˜¸ ¬°¸ú ˆ½Å ú¨¸›¸ ˆÅú ‚¿÷¸÷¸ÄŸ¸ ¬¸च्च¸ƒÄ ž¸ú Ÿ¸¸¢Ÿ¸ÄˆÅ œ¸ú”õ¸ Ÿ¸½¿ íú ¨¡¸Æ÷¸ í¸½÷¸ú í¾—
í¸Â ÷¸ˆÅ ¬°¸ú ¬¸©¸Æ÷¸úˆÅ£µ¸ ˆÅ¸ œÏ©›¸ í¾ ÷¸¸½ ¡¸í¸Â ¬œ¸«’ í¾ ¢ˆÅ ¢¬°¸¡¸¸Â ÷¸¸½ ¡¸ºŠ¸¸£¿ž¸ ¬¸½ ¬¸©¸Æ÷¸ íú íÿ, ¡¸í ÷¸¸½  œ¸º²«¸ ¨¸Ä¬¨¸ ¨¸¸¥¸¸ ¬¸Ÿ¸¸ í¾ ¸½ ƒ›¸ˆÅú ¬¸©¸Æ÷¸÷¸¸, ¢›¸ž¸úĈÅ÷¸¸, ¢›¸µ¸Ä¡¸¸÷Ÿ¸ˆÅ ®¸Ÿ¸÷¸¸, ¬¸¸Ÿ¸¸¢ˆÅ ¬¸£¸½ˆÅ¸£, ˆºÅ¨¡¸¨¸¬˜¸¸ ¬¸½ œÏ¢÷¸£¸½š¸ ˆÅ¸½ ¬¸¸¿¬ˆ¼Å¢÷¸ˆÅ, £¸›¸ú¢÷¸ˆÅ ‡¨¸¿ ¬¸¸Ÿ¸¸¢ˆÅ «¸”¡¸¿°¸ ˆ½Å ÷¸í÷¸ œ¸º²«¸ ™¿ž¸ ˆÅú £®¸¸ í½÷¸º ¢¨¸ˆ¼Å÷¸ ³œ¸ Ÿ¸½¿ ¢›¸£úí ‚¤¸¥¸¸ Ž¢¨¸ Ÿ¸½¿ œ¸½©¸ ˆÅ£÷¸¸ í¾— ‚›¡¸˜¸¸ ¬°¸ú ˆÅž¸ú ž¸ú ¢›¸¤¸Ä¥¸ ›¸íì ˜¸ú ¢ˆ¿Å÷¸º ¢›¸£¿÷¸£ ™¤¸¸‡ ¸›¸½ ¬¸½ „›¸ˆ½Å ž¸ú÷¸£ ©¸¢Æ÷¸ ˆÅ¸ ‚í¬¸¸¬¸ ˆºÅŽ ˆÅŸ¸ ‚¨¸©¡¸ íº‚¸— ¢œ¸÷¸¼¬¸÷÷¸¸ ¬¸½ ¢¨¸Í¸½í ÷¸¸½ œ¸¸¨¸Ä÷¸ú ›¸½ ž¸ú ¢ˆÅ¡¸¸ ˜¸¸— ¬¸ú÷¸¸ ¸½ ‚ˆ½Å¥¸ú ¬°¸ú ˆÅ¸ ™¸¢¡¸÷¨¸ ÷¸¸½ ¤¸‰¸»¤¸ú ¢›¸ž¸¸÷¸ú £íì ¥¸½¢ˆÅ›¸ œ¸º²«¸ ¨¸Ä¬¨¸ ˆ½Å œÏ¢÷¸ „›¸ˆ½Å ‚¸ÇŸ½©¸ ˆ½Å ˆÅ¸£µ¸ „›í¸½¿›¸½ œ¸º²«¸ ³œ¸ú £¸Ÿ¸ ˆÅ¸½ œÏ¸¡¸¢©÷¸ ˆÅ¸ Ÿ¸¸¾ˆÅ¸ íú ›¸íì ¢™¡¸¸ ‚¸¾£ š¸£÷¸ú Ÿ¸½¿ ¬¸Ÿ¸¸ Š¸ƒÄ— ‚¸œ¸¸÷¸¢¬˜¸¢÷¸ Ÿ¸½¿ ûÅ¥¸ ˆÅú œ¸£¨¸¸í ¢ˆÅ¡¸½ ¢¤¸›¸¸ ¢›¸µ¸Ä¡¸ ¥¸½›¸½ ˆÅú ®¸Ÿ¸÷¸¸ ˆ½Å ÷¸í÷¸ íú ¥¸®Ÿ¸µ¸£½‰¸¸ ¬¸½ ¤¸¸í£ ‚¸›¸½ ˆÅú ©¸¢Æ÷¸ ‡ˆÅ ¬°¸ú ¢™‰¸¸÷¸ú í¾— ¬°¸ú ¬¸©¸Æ÷¸úˆÅ£µ¸ ˆ½Å ¢¥¸‡ ¤¸¸í£ ¬¸½ ˆºÅŽ ¥¸½›¸½ ˆÅú ‚¸¨¸©¡¸ˆÅ÷¸¸ ›¸íì í¾, ¬°¸ú ‚Š¸£ ‚œ¸›¸½ ¬¸Ÿ¸¼Ö ƒ¢÷¸í¸¬¸ ˆÅ¸ ‚¨¸¥¸¸½ˆÅ›¸ ˆÅ£ ¥¸½ ÷¸˜¸¸ „›¸ ¬¸©¸Æ÷¸ Š¸ºµ¸¸½¿ ˆÅ¸½ ‚œ¸›¸½ ž¸ú÷¸£ ¸Š¸¼÷¸ ˆÅ£ ¥¸½ ÷¸˜¸¸ „¬¸½ ˆÅ¸¡¸¸Ä¢›¨¸÷¸ ž¸ú ˆÅ£½ ÷¸¸½ ‚¸¾£ ˆºÅŽ ˆÅ£›¸½ ˆÅ¸½ ¤¸¸ˆÅú íú ›¸íì £í½Š¸¸—
"Ÿ¸¸š¸¨¸ú, ©¸ˆº¿Å÷¸¥¸¸, ™Ÿ¸¡¸¿÷¸ú, ¨¸¸¬¸¨¸™÷÷¸¸ í¸½¿ ¡¸¸ £¸š¸¸, ²¢ÆŸ¸µ¸ú, ͸¾œ¸™ú, ú¨¸›¸ ˆ½Å œÏ¢÷¸ ƒ›¸ˆÅ¸ ²‰¸ ‰¸º¥¸¸ íº‚¸ í¾, ‚¸¾£ ¨¸½ ›¸¸¢¡¸ˆÅ¸‡Â íÿ ÷¸¸½ ƒ¬¸¢¥¸‡ ¢ˆÅ „›¸Ÿ¸½¿ ¢œ¸’ú-¢œ¸’¸ƒÄ ¥¸ˆÅú£ ¥¸¸Â‹¸›¸½ ˆÅ¸ ÷¸½ í¾, Æ¡¸¸½¢ˆÅ ‚œ¸›¸½ ¢¬¸Ö¸¿÷¸ œ¸£ ‚’¥¸ £í›¸½ ˆÅú ´õ÷¸¸, œ¸£ ¡¸í ´õ÷¸¸ ˆÅž¸ú „›¸ˆ½Å ¨¡¸¢Æ÷¸÷¨¸ ˆÅ¸½ ‚›¸¸¨¸©¡¸ˆÅ ˆÅ“¸½£÷¸¸ ‚¸¾£ ˆÅ’º÷¸¸ ›¸íì ™½÷¸ú—"[7]
œ¸í¥¸½ ž¸ú ˜¸¸ ‚¸¾£ ‚¸ ž¸ú í¾, ¬°¸ú ˆÅ¸½ ‚œ¸›¸½ ‚¢¬÷¸÷¨¸ ˆÅ¸ ¬¸¤¸¬¸½ ¤¸”õ¸ ¬¸¿ˆÅ’ ¡¸¸¾›¸ ©¸¸½«¸µ¸ íú ¥¸Š¸÷¸¸ í¾, ¢ˆ¿Å÷¸º ƒ¬¸ ˆÅ¢˜¸÷¸ ©¸º¢÷¸¸ ¬¸½ ‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸ ¬°¸ú ¸¢÷¸ ˆÅ¸½ ¬¨¸÷¸¿°¸ í¸½›¸½ ˆÅú ©¸¢Æ÷¸ ™½÷¸ú í¾-
"...í¸Â œÏ½Ÿ¸ í¸½÷¸¸ í¾, ¨¸í¸Â ¬¸Ÿ¸œ¸Äµ¸-¾¬¸½ ¤¸”õ½ ž¸¸¨¸ ˆ½Å ‡ˆÅ œÏ÷¸úˆÅ (’¸½ˆ½Å›¸) ˆ½Å ³œ¸ Ÿ¸½¿ ™¾¢íˆÅ ¬¸¿¬œ¸©¸Ä ‡ˆÅ Ÿ¸í÷¨¸œ¸»µ¸Ä ‹¸’›¸¸ ˆ½Å ³œ¸ Ÿ¸½¿ ú¨¸›¸ ˆÅú ‚¸í¥¸¸™ˆÅ¸£ú ¥¸¡¸ ¤¸›¸ ¸÷¸¸ í¾, ¨¸£›¸¸ ™½í ¬¸½ ™½í ¥¸”õ ¸›¸½ ˆÅ¸ Æ¡¸¸ Ÿ¸÷¸¥¸¤¸?"[8]
¨¸¸¬÷¸¨¸ Ÿ¸½¿ ¡¸¸¾›¸ ©¸¸½«¸µ¸ ˆÅ¸½ ¤¸½Ÿ¸¸›¸ú ¢¬¸Ö ˆÅ£›¸¸ ¬°¸ú ¢í÷¸ Ÿ¸½¿ ‡ˆÅ ¬¸©¸Æ÷¸ ˆÅ™Ÿ¸ í¾  लेकिन इसका अर्थ यह नही कि शोषक निर्दोष है— ‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸ ›¸½ ¬¸Ÿ¸¸ ˆ½Å ƒ¬¸ भ्रम ˆÅ¸½ ž¸ú ÷¸¸½”õ›¸¸ ¸í¸ í¾ ¢ˆÅ ‚ˆ½Å¥¸ú Ÿ¸¸Â ‚œ¸›¸½ ¤¸च्च¸½¿ ˆÅ¸ ‚¸™©¸Ä œ¸¸¥¸›¸ ›¸íì ˆÅ£ ¬¸ˆÅ÷¸ú— „›í¸½¿›¸½ ž¸£÷¸, ¢©¸¨¸¸ú, ¥¸¨¸-ˆºÅ©¸ ¾¬¸½ ¬¸¿÷¸¸›¸¸½¿ ˆÅ¸ „™¸í£µ¸ ™½ˆÅ£ ¢¬¸Ö ˆÅ£ ¢™¡¸¸ ¢ˆÅ ‚ˆ½Å¥¸ú Ÿ¸¸Â í£ ³œ¸ Ÿ¸½¿ í£ ¤¸¸£ ‚œ¸›¸½ ‚¸¾£ ‚œ¸›¸ú ¬¸¿÷¸¸›¸ ˆÅú £®¸¸ í½÷¸º ›¸ ˆ½Å¨¸¥¸ ¬¸®¸Ÿ¸ í¾ ¨¸£›¸Ã ‚œ¸›¸ú-‚œ¸›¸ú ¬¸¿÷¸¸›¸ Ÿ¸½¿ ¨¸¬¸ºš¸¾¨¸ ˆºÅ’º¿¤¸ˆÅŸ¸ ˆÅú ž¸¸¨¸›¸¸ ž¸ú ž¸£÷¸ú í¾— ‚¸ ˆÅú „÷÷¸£ ‚¸š¸º¢›¸ˆÅ ¬°¸ú ›¸½ ‚œ¸›¸½ ú¨¸›¸ ˆÅ¸ ûÅ¥¸ˆÅ ¢¨¸¬÷¸¼÷¸ ˆÅ£ ¢¥¸¡¸¸ í¾— ¬›¸½í, œÏ½Ÿ¸ ‚¸¾£ Ÿ¸Ÿ¸÷¨¸ Ÿ¸£¸ ›¸íì í¾, ¨¸í ¬¸º£¢®¸÷¸ í¾— ¢¬°¸¡¸¸Â ‚¸ ž¸ú Ÿ¸¸Â, œ¸÷›¸ú, ¤¸í›¸, œÏ½¢Ÿ¸ˆÅ¸ ‚¸¾£ ™¸½¬÷¸ ˆ½Å ³œ¸ Ÿ¸½¿ œ¸º²«¸ ˆ½Å œÏ¢÷¸ ˆÅ¸½Ÿ¸¥¸ ž¸¸¨¸›¸¸ £‰¸÷¸ú íÿ— „›¸ˆÅ¸ ¢¨¸Í¸½í œ¸º²«¸¸½¿ ¬¸½ ›¸íì í¾, ¨¸£›¸Ã œ¸º²«¸¸½¢÷¸ ‚í¿ˆÅ¸£ ¬¸½ í¾ ¸½ ¢›¸£¿÷¸£ ›¸ ¢¬¸ûÄÅ ›¸¸£ú ˆÅ¸½ ‚œ¸Ÿ¸¸¢›¸÷¸ ˆÅ£÷¸¸ í¾ ¨¸£›¸ ‚œ¸›¸½ ž¸ú÷¸£ ˆÅú ˆÅ²µ¸¸, ®¸Ÿ¸¸, ™¡¸¸, œÏ½Ÿ¸ ¾¬¸½ ˆÅ¸½Ÿ¸¥¸ Š¸ºµ¸¸½¿ ˆÅ¸½ ž¸ú ¤¸¸í£ œÏˆÅ’ í¸½›¸½ ¬¸½ £¸½ˆÅ÷¸¸ í¾— ¢¬°¸¡¸¸Â ‚¸ ¬¸©¸Æ÷¸ íÿ ¢ûÅ£ ž¸ú œ¸º²«¸¸½¿ ¬¸½ „›¸ˆÅú ˆºÅŽ ‚œ¸½®¸¸‡Â íÿ— ‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸ ˆ½Å ©¸¤™¸½¿ Ÿ¸¿½-
" ›¸ƒÄ ¬°¸ú ‚¸œ¸¬¸½ ‚¸ˆÅ¸©¸ˆºÅ¬¸ºŸ¸ ÷¸¸½ ›¸íì Ÿ¸¸¿Š¸÷¸ú, ™º¢›¸¡¸¸ ˆÅ¸ ˆÅ¸½ƒÄ ‚¸ˆÅ¸©¸-ˆºÅ¬¸ºŸ¸ ÷¸¸½”õ ¥¸¸›¸½ Ÿ¸½¿ ¨¸í ‰¸º™ íú ¬¸®¸Ÿ¸ í¾, ...œ¸º²«¸ ¬¸½ „¬¸ˆÅú ‚œ¸½®¸¸ ¢¬¸ûÄÅ ‡ˆÅ í¾, ›¸¾¢÷¸ˆÅ œ¸¢£«ˆÅ¸£ ˆÅú, ˆÅ¸Ÿ¸ ‚¸¾£ ÇŸ½š¸ ‚¸¾£ ¥¸¸½ž¸ ˆÅ¸ ¸½ ¬¸£œ¥¸¬¸, ¸½ í¸í¸ˆÅ¸£ú ‚¢÷¸£½ˆÅ œ¸»£ú ™º¢›¸¡¸¸ œ¸£ ‚¸÷¸¿ˆÅ ˆÅ¸ £¸ज्य ˆÅ¸¡¸Ÿ¸ ˆÅ£›¸½ œ¸£ ÷¸º¥¸¸ í¾, „¬¸ˆÅú ¢÷¸¥¸¸¿¢¥¸, œÏ¸÷¸¸¿¢°¸ˆÅ Ÿ¸»¥¡¸¸½¿ ˆÅ¸ ¢¨¸ˆÅ¸¬¸, š¸ú£¸½™÷÷¸÷¸¸ ˆÅ¸ ¢¨¸ˆÅ¸¬¸—"
इन अपे®¸¸ओं ˆÅú पूµ¸Ä¸ मनुष्यता ˆÅú ¬थापना íú ÷¸¸½ í¾—      




[1] ¬Ï¨¸¿¢÷¸, ¢™¬¸¿¤¸£-2009-œ¸¼.7 (¬°¸ú ¢¨¸Ÿ¸©¸Ä ˆ½Å ˆ½¿ÅÍ Ÿ¸½¿ `™½í' í¸½›¸¸ ¬¨¸¸ž¸¸¢¨¸ˆÅ í¾-‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸)
[2] ‚¨¸¸¿÷¸£ ˆÅ˜¸¸, ‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸ (›¸¸£ú ˆÅ¸ „œ¸›¡¸¸¬¸ ¤¸›¸¸Ÿ¸ „œ¸›¡¸¸¬¸ ˆÅú ›¸¸£ú, ¨¸ú£½¿Í ¡¸¸™¨¸, ‚¸¥¸¸½›¸¸-œ¸¼.183
[3] ž¸¸«¸¸,  ›¸¨¸£ú-ûÅ£¨¸£ú 2009-œ¸¼.195 (Ÿ¸º¢Æ÷¸ˆÅ¸Ÿ¸›¸¸ ˆÅú Ÿ¸í¸Š¸¸˜¸¸-”¸Á.¨¸½™œÏˆÅ¸©¸ ‚¢Ÿ¸÷¸¸ž¸)
[4] ‚›¸º«’ºœ¸, ‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸-œ¸¼.44
[5] ¤¸ú¸®¸£, ‚›¸¸¢Ÿ¸ˆÅ¸-œ¸¼.44
[6] (¬¸¿.)£¸½¿Í ¡¸¸™¨¸, ‚ž¸¡¸ ˆºÅŸ¸¸£ ™»¤¸½, œÏž¸¸ ‰¸½÷¸¸›¸, ¢œ¸÷¸¼¬¸÷÷¸¸ ˆ½Å ›¸¡¸½ ³œ¸-œ¸¼.25

[7] (¬¸¿.)£¸½¿Í ¡¸¸™¨¸, ‚Ä›¸¸ ¨¸Ÿ¸¸Ä, ‚¸¾£÷¸ „÷÷¸£ ˆÅ˜¸¸-œ¸¼.183
[8] ¬¸¿.£¸½¿Í ¡¸¸™¨¸, ‚Ä›¸¸ ¨¸Ÿ¸¸Ä, ‚¸¾£÷¸ „÷÷¸£ ˆÅ˜¸¸-œ¸¼.182