Sunday, January 12, 2020

स्वामी विवेकानंद : राष्ट्रीय पुनर्निर्माण

स्वामी विवेकानंद : राष्ट्रीय पुनर्निर्माण

लोकहित सर्वोपरि के अनन्य साधक, एक सनातन धर्म के सर्वोत्कृष्ट व्याख्याता, समन्वय के महान आचार्य,
 वेदांत के अप्रतिम प्रसारक, दुर्दमनीय साहसी व्यक्तित्व के स्वामी का जन्म 12 जनवरी 1863 को बालक
 नरेन्द्रनाथ दत्त (नरेन) के रूप में कलकत्ता के दत्त परिवार में हुआ | इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी
 एवं पिता का नाम विश्वनाथ दत्त है | सन 1881 में रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट हुई और यहीं से
उनके जीवन में अनोखा परिवर्तन आया | इन्होंने गुरु के सानिध्य में ईश्वर की अनुभूति पाई और ईश्वरीय
सत्ता में उनका विश्वास  दृढ़ हो गया | सामाजिक सुधार के नाम पर जब मूर्तिपूजा के अस्तित्व पर खतरा
मंडरा रहा था तब उन्होंने स्पष्ट कहा था कि यदि मूर्तिपूजा से श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे व्यक्ति उत्पन्न हो
 सकते हैं तो  हजारों मूर्तियों की पूजा करो | प्रभु तुम्हें सिद्धि दें जिस किसी भी उपाय से हो सके इस प्रकार
 के महात्मा  पुरुषों की सृष्टि करो | नरेन ने अपने गुरु से एक प्रश्न  किया और प्रत्युत्तर से उनके जीवन में
 एक महत्वपूर्ण मोड़  आया | ‘क्या, क्यों और कैसे’ से भरे हुए उनके मन को दिव्य शांति मिली  साथ ही
आध्यात्मिक पथ यात्रा की अन्तः स्फूर्त प्रेरणा भी | गुरु के प्रति पूर्ण समर्पित और ईश्वरीय शक्ति में दृढ़
 आस्था वाले इस  बालक ने  हर नर में नारायण को देखा तभी तो सेवाव्रती का धर्म निभ पाया | इनके
अनुसार  मूर्ति में बसे हुए उस सर्वशक्तिमान का साक्षात् हर जीव में प्रत्यक्ष है बस आवश्यकता अनुभूत
 करने की है | इस अनुभूति के बाद कहीं कुछ अप्रिय घटित होने की  संभावना ही  नहीं रहेगी | भला कौन
 होगा जो अपने प्रिय का , अपने ही  स्वरूप का अहित करना चाहेगा ! शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन का सार
 भी यही है –
‘ब्रह्म सत्यं  जगन्नमिथ्या , जीवो ब्रह्मैव नापरः |’ (अर्थात ब्रह्म सत्य है | यह संसार मिथ्या है | जीव और ब्रह्म
अभिन्न हैं |)  आत्मा, ब्रह्म , बंधन और मोक्ष संबंधी इनके विचारों पर जहाँ आदिगुरू शंकराचार्य का प्रभाव
 है वहीं सेवा और पुनर्जागरण संबंधी इनके विचार में श्री रामकृष्ण परमहंस का प्रभाव दीखता है | मोक्ष के
 लिए इन्होंने जिन चार मार्गों का प्रतिपादन किया वे हैं ज्ञान, कर्म, भक्ति और राजयोग | इन पर आधारित
 स्वामी विवेकानंद की चार कृतियाँ उपलब्ध हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं – ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग
 और राजयोग | ज्ञान योग का प्रथम चरण अध्ययन को अनुभूत करने से संबद्ध है | केवल पढ़ना या सुनना
 भर काफी नहीं है | उसका चिंतन और अनुसरण भी आवश्यक है | ध्यानस्थ होने के लिए मन, शरीर और
 इन्द्रिय पर पूर्ण नियंत्रण यानि पूर्ण वैराग्य की अवस्था में तात्विक ज्ञान साधना की  ओर मनुष्य की तत्परता
जिसके परिणामस्वरूप वह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भावक बन जाता है, वस्तुतः ज्ञानयोग है |  भक्तियोग में
भावना सर्वोपरि है | यह सरल, सहज और सर्व सुलभ है | गीता के निष्काम कर्म की भावना पर आधारित
 है कर्मयोग जिसके अंतर्गत मनुष्य को तात्विकता में उलझे बिना अपने कर्म का निर्वाह इस जगत के
नियमानुसार निःस्वार्थ भाव से करना है | गौतम बुद्ध का निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् मनुष्यों के लिए किये  गये
 कर्म को स्वामी विवेकानंद ने आदर्श रूप  में प्रस्तुत किया है | यह ‘स्व’ और ‘पर’ का भेद मिटाकर किया
 जानेवाला कर्म ही वास्तविक कर्मयोग है | इनका राजयोग मार्ग  महर्षि पतंजलि के योगसूत्र पर आधारित
 है | इसमें ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के नियंत्रण के लिए कुछ विशिष्ट पद्धतियों का पालन बिना किसी
चूक के अनिवार्य रूप से करना आवश्यक बताया गया है | इसमें यौगिक क्रियाएं भी सम्मिलित हैं | अपने
 चरमावस्था में यहाँ भी साधक ध्यानस्थ ही होता है | ये चारो मार्ग परस्पर संबद्ध हैं | व्यक्ति अपनी
अभिरुचि एवं क्षमता के अनुसार किसी का भी चयन कर आगे बढ़ सकता है | अपने व्याख्यानों में कई
बार उन्होंने शास्त्रों का तर्क देते हुए सभी धर्मों के परस्पर संबद्धता और एक्य की बात कही | अपनी
अद्भुत धार्मिक और तात्विक व्याख्यायों  से इस भारत को संपूर्ण विश्व का गुरु बनाने वाले स्वामी
विवेकानंद का अपनी भारत भूमि से, यहाँ की  संस्कृति से, यहाँ की  भाषा से, यहाँ के लोगों से और संपूर्ण
चराचर जगत  से अनन्य प्रेम रहा है | उनके प्रेम के प्रवाह को निरंतर बनाये रखने का उत्तरदायित्व हमारा
 है | इस ओर हमने क्या कोई कदम उठा रहे  हैं ? क्या हम अपने छोटे-छोटे दायरे के भीतर  ही मनुष्यता
की अलख जगा पा रहे हैं  ? नैतिकता का कोई सार्वभौम सिद्धांत नहीं है | यह देश, काल और परिस्थितियों
 के अनुसार बदलता रहता है | इसे देखते हुए स्वामी विवेकानंद ने कुछ आदर्शों की रुपरेखा बनाई और
मनुष्य जाति के ज्ञान चक्षु को खोलने के लिए, उस दिव्य मनुष्य निर्माण वाली शिक्षा को  हमारे बीच रखा
जो स्वामी विवेकानंद के शब्दों में यहाँ द्रष्टव्य है – “ सुनो प्रत्येक नर और नारी, प्रत्येक शिशु बिना किसी
 जाति या जन्म के विचार के, बिना दुर्बलता या शक्ति की भावना के यह सुने और सीखे कि सबल और
निर्बल के पीछे, उंच और नीच के पीछे, सबके पीछे वही अनंत आत्मा है, जो सबकी अनंत संभावना और
 अनंत सामर्थ्य पर बल देता हुआ उन्हें महान और उत्तम बनाने का आश्वासन प्रदान करता है | हम प्रत्येक
 जीव के समक्ष घोषणा करें – उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक मत रुको |... दुर्बलता के इस सम्मोहन
से जागो | कोई भी वस्तुतः दुर्बल नहीं है ; यह आत्मा अनंत, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है | खड़े होओ,
अपने अस्तित्व पर बल दो, अपने अन्तः स्थित परमात्मा कि घोषणा करो , उन्हें अस्वीकार मत करो | ...हम
मनुष्य निर्माण करनेवाला धर्म चाहते हैं...| हम सर्वतः मनुष्य निर्माण करनेवाली शिक्षा ही चाहते हैं | हम
मनुष्य निर्माण करनेवाला सिद्धांत ही चाहते हैं | और यह रही सत्य की  कसौटी – जो भी तुम्हे शारीरिक,
बौद्धिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाता है, उसे विष के समान त्याग दो ; उसमें किसी प्रकार का
जीवन नहीं है, वह सत्य नहीं हो सकता | सत्य बलप्रद होता है | सत्य पवित्रता स्वरूप है | सत्य सर्वज्ञान
स्वरूप है |...दुर्बल करने वाले रहस्यवाद छोड़ दो और सबल बनो  | ... महानतम सत्य संसार में सबसे
सरल हुआ करते हैं ,तुम्हारे अपने अस्तित्व की तरह सरल |” अपने अस्तित्व को गरिमा की दृष्टि से देखना
स्वीकार योग्य महत्वपूर्ण तथ्य है | निजी हेयता का शिकार होकर ही कोई भी प्राणी कुमार्गी बनता है और
विकृतियों का शिकार होता है तथा स्वयं का, परिवार का और राष्ट्र का अहितकारक बन आता है |

देश और समाज की हृदयद्रावक स्थिति को स्पष्ट करते हुए युवाओं एवं भावी समाज -
सुधारकों के नाम अपने संदेश में स्वामी विवेकानंद कहते हैं  ,” हम ही अपने सारे पतन के लिए उत्तरदायी
हैं | हमारे सामंतवादी पूर्वज देश कि साधारण जनता को अपने पैरों तले इतना रौंदते गए कि वे असहाय
बन गए और इस अत्याचार के कारण यहाँ के गरीब लगभग भूल ही गए कि वे भी मनुष्य हैं | उन्हें
शताब्दियों से केवल लकड़ी काटने वाले या पानी ढोनेवाले बने रहने के लिए ही बाध्य किया गया है ..|
...अतएव मेरे भावी सुधारकों, मेरे भावी देशभक्तों, तुम अनुभव करो, तुम हृदयवान बनो | क्या तुम हृदय
से अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों कि करोड़ों संतानें आज पशुतुल्य हो गयी है ? क्या तुम हृदय से
अनुभव करते हो कि लाखों आदमी आज भूखों मर रहे हैं और लाखों लोग शताब्दियों से इसी भांति मरते
आए हैं ? क्या तुम अनुभव करते हो कि अज्ञान के काले बादल ने सारे भारत को ढँक लिया है ? क्या तुम
यह सब सोचकर द्रवित हो जाते हो ? क्या इस भावना ने तुम्हारी नींद को गायब कर दिया है ?... क्या तुम
अपने नाम-यश, स्त्री-पुत्र, धन-संपत्ति यहाँ तक कि अपने शरीर की सुध भी बिसर गए हो ? क्या सचमुच
तुम ऐसे हो गए हो ? यदि हाँ तो जानो तुमने देशभक्त बनने कि पहली सीढ़ी पर पैर रखा है |... केवल व्यर्थ
कि बातों में शक्ति का क्षय न करते हुए इस दुर्दशा का निवारण करने के लिए क्या तुमने कोई यथार्थ
कर्तव्य पथ निश्चित किया है ? क्या लोगों को गाली न देकर उनकी सहायता का कोई उपाय सोचा है ? क्या
स्वदेशवासियों को उनकी इस जीवन्मृत अवस्था से बाहर निकालने का कोई मार्ग ठीक किया है ? क्या
उनके दुखों को कम करने के लिए दो सांत्वनादायक शब्दों को खोजा है ? किंतु इतने में ही पूरा न होगा |
क्या तुम पर्वतकाय विघ्न बाधाओं को लाँघकर कार्य करने के लिए तैयार हो ? यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी
तलवार लेकर खड़ी हो जाए तो भी क्या तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करोगे
?...यदि तुममें ये तीन बातें हैं तो तुममें से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता है |”
 “आगामी पचास वर्षों के लिए ...हमारे मन से .. शेष सभी व्यर्थ के देवता लुप्त हो जाएँ | केवल यही, यह
हमारी जाति ही ऐसी देवता है जो जाग रहा  है, उसके सभी जगह हाथ हैं, सभी जगह पैर हैं, सभी जगह
 आँखें हैं, वह सबको व्याप्त करके स्थित है | दूसरे सब देवता सो रहे हैं | व्यर्थ के देवताओं के पीछे जाकर
क्या लाभ, जब हम अपने चारों ओर विद्यमान इस ईश्वर की इस विराट की पूजा नहीं कर पाते ? ...सबसे
पहली उपासना विराट की उपासना है |हमारे चारो ओर जो हैं, उनकी उपासना है | ...ये मनुष्य और जीव-
जंतु – ये हि हमारे देवता हैं और यदि किसी देवता की हमें सबसे पहले उपासना करनी चाहिए तो वे हैं
हमारे देशवासी |”
स्वामी विवेकानंद के इस संदेश में एक अखण्ड और संगठित राष्ट्र की अवधारणा सन्निहित है | लोकहित
 में लोकशक्ति के संगठन का यह कार्य लोकशिक्षा के बगैर असंभव है | विश्वगुरुत्व की क्षमता वाले भारत
के निवासी धर्मोन्मुख है | अतः धर्म को ही  राष्ट्रीय जीवन का मेरुदंड मानते हुए आध्यात्मिक ज्ञान के
प्रचार-प्रसार का कार्य उन्होंने भारत और भारतेतर देशों में क्रमशः प्रारंभ किया | इसके लिए शिक्षालयों
की भी स्थापना की गई | सुप्त ब्रह्म भाव को जागृत करनेवाले ये शिक्षालय चैतन्य के संवाहक बने | यहाँ
शास्त्रों और उपनिषदों के माध्यम से स्वधर्म पालन और कर्मवीरता का वह पाठ पढ़ाया जाता था जिससे
मन के साथ-साथ जीवन का भी अँधेरा आसानी से छंट जाता  और मानव जीवन का लक्ष्य स्पष्ट हो जाता |
वैर – वैमनस्य और दुराव के अभाव में ही वसुधैव कुटुंबकम का भाव निहित है और इसके समुचित पोषण
के लिए वेदांत के सत्यों को प्रतिपादित करते हुए स्वामी विवेकानंद ने सार्वभौम धर्म की परिकल्पना की
जिसका स्वरूप यहाँ द्रष्टव्य है , “ यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है, तो वह किसी देश या काल से
सीमाबद्ध नहीं होगा ; वह उस असीम ईश्वर के सदृश हि असीम होगा, जिसका वह उपदेश देगा ; जिसका
सूर्य, कृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर, संतों पर और पापियों पर सामान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा;
जो न तो ब्राह्मण होगा, न बौद्ध , न इसाई और न इस्लाम वरन सबकी समष्टि होगा,किंतु फिर भी जिसमें
विकास के लिए अनंत अवकाश होगा ; जो इतना उदार होगा कि पशुओं के स्तर से किंचित उन्नत निम्नतम
घृणित जंगली मनुष्य से लेकर अपने हृदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से ऊपर उठ गए
उच्चतम मनुष्य तक को स्थान दे सकेगा | वह धर्म ऐसा होगा जिसकी नीति में उत्पीड़न या असहिष्णुता
का स्थान नहीं होगा ; वह प्रत्येक स्त्री और पुरुष में दिव्यता को स्वीकार करेगा और उसका संपूर्ण बल
और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही
केन्द्रित होगा | आप ऐसा धर्म सामने रखिए और सारे  राष्ट्र आपके अनुयायी बन जाएंगे | ...  इसाई को
हिन्दू या बौद्ध नहीं बनना है न कि हिन्दू या बौद्ध को इसाई ही | पर हाँ प्रत्येक को चाहिए कि वह दूसरों के
 सारभाग को आत्मसात कर पुष्टि-लाभ करे और अपने वैशिष्ट्य कि रक्षा करते हुए अपनी निजी वृद्धि के
नियम के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हों |”  राष्ट्र के पुनर्निर्माण का दायित्व हर मनुष्य पर समरूप है  जिसके
लिए समन्वय, शांति, अहिंसा, सत्य, प्रेम, निःस्वार्थ सेवा, त्याग, परस्पर साहचर्य इत्यादि मानवीय गुणों की
व्यावहारिक प्रतिष्ठा आवश्यक है जो निज धर्म के अंगीकार व निर्वाह से सहज ही सुलभ है  | मनुष्य
निर्मायक धर्म की स्थापना वस्तुतः मनुष्य कि स्वाभाविक उन्नति हेतु सुमार्ग का प्रशस्तीकरण है | किसी भी
 प्रकार की दुर्बलता (शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक) निर्माण और उन्नति में अवरोध उत्पन्न करती है
इसलिए इन दुर्बलताओं को त्यागकर आत्मबली बनने के लिए, सम्पूर्ण मानव जाति का स्वामी विवेकानंद
ने बारम्बार आह्वान किया | उन्नीसवी सदी में भारत के इस  युवा सन्यासी पूरे विश्व में भारत की
आध्यात्मिकता का परचम लहरा दिया | उस परिप्रेक्ष्य में आज की इक्कीसवीं सदी की हमारी  युवा पीढ़ी
को स्वयं को टटोलने की आवश्यकता है | स्व की उन्नति  के साथ सर्व की उन्नति वाले भाव के साथ पर को
उसके  दोष के लिए कोसने की जगह उन दोषों के निवारण हित प्रयत्न की प्रवृत्ति  का आत्मसातीकरण हो
 – यही राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का मूलमंत्र है जो स्वामी विवेकानंद के शब्दों में यहाँ द्रष्टव्य है , “यदि इस समाज
में , इस राष्ट्रीय जीवन रूपी जहाज में छेद हैं तो हम तो उसकी संतान हैं | आओ चलें उन छेदों को बंद कर
दें  ... हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनायेंगे और जहाज के उन छेदों में भर देंगे पर उसे
कोसना नहीं ? नहीं-नहीं, कभी नहीं, इस समाज के विरुद्ध एक शब्द न निकालो | उसकी अतीत की
 गरिमा के लिए मेरा उस पर प्रेम है |” आज की  प्रेमहीन, दिशाहीन, यांत्रिक, स्वार्थी और दिखावे वाली
खोखली मृत सी जीवन शैली वाले समाज में स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचार प्रवाह की  विद्यमानता
में उम्मीद की एक किरण सी है कि मानव फिर से अपनी मानवीय संस्कृति और मानवीयता पर गर्व
करेगा |
संदर्भ :
स्वामी विवेकानंद साहित्य समग्र