सोमवार, 27 अगस्त 2018
रामायण में आदिवासी की भूमिका
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आदिवासी को अनुसूचित जनजाति
कहा जाता है | अपनी विशिष्ट संस्कृति और भाषा को सहेज कर रखनेवाले इस समुदाय को
कथित उन्नत समाज में पिछड़ा माना जाता है जबकि वे आदि निवासी हैं | ‘आदिवासी’ शब्द का
शाब्दिक अर्थ है “मूल निवासी” | “आदिवासी देश के मूल निवासी माने जाने वाले तमाम
आदिम समुदायों का सामूहिक नाम है |...आदिवासी पद का ‘आदि’ उन समुदायों के आदिम युग
तक के इतिहास का द्योतक है |”1 “आदिवासी विशेषज्ञ जे.जे.राय बर्मन के
अनुसार आदिवासियों में सभी जातियाँ मूल आदिवासी जाति की केटेगरी में नहीं
आतीं...|”2 विख्यात आदिवासी चिंतक रमणिका गुप्ता ने अनार्यों के प्रति
आर्यों का दृष्टिकोण बताते हुए रामायण का संदर्भ जोड़कर स्पष्ट किया है कि आर्यों
ने आदिवासियों (अनार्यों) को मनुष्येतर श्रेणी में रखा है जो सर्वथा अनुचित है | द्रष्टव्य
हैं उनके विचार - “...अनार्य उनकी दृष्टि में मनुष्यता का दर्जा पाने के हकदार ही
नहीं थे | वे असुर थे, राक्षस थे, दानव थे, और सब विकृतियों, दुर्गुणों से लैस और
बदसूरती के प्रतीक थे | पशुओं के सींग, पूंछ और लंबे-लंबे दांत उनपर मढ दिए गए थे
| मनुष्य तो इन्हें आर्यों ने माना ही नहीं | जिसने राम का विरोध किया उसे राक्षस
करार कर दिया गया | और तो और जिन्होंने राम की सहायता कर उसका साम्राज्य कायम
कराया, उन्हें भी बन्दर, भालू, गरुड़ कहा – मनुष्य नहीं |”3 मनुष्यता के क्रंदन और हनन की अनुगूँज तो भक्तिकालीन
कवियों की कविताओं में भी मुखरित है|
रामायण में वर्णित विशिष्ट समुदायों के विशेष नाम (बन्दर, भालू, गरुड़,
राक्षस, कोल, किरात, भील, वनवासी) रूप और गुण आधृत प्रतीत होते हैं | रामायण की
संरचना में ‘आदिवासी’ अंतर्गुम्फित एवं समादृत हैं | रामचरितमानस में ‘तुलसीदास’ “सुर
अंसिक सब कपि और रीछा”4 कह कर इन्हें संबोधित करते हैं | राम ने इन्हें
स्वयं से कम कब आँका ? कम आँका होता तो
भला भीलनी शबरी के जूठे बेर इतने प्रेम से वे क्यों खाते ? भला वे क्यों कहते
निषादराज गुह से-
“तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता | सदा रहेहु पुर आवत जाता ||”5
अंगद
ने जब राम से कहा-
“नीचि टहल गृह कै सब करिहऊँ |पद पंकज बिलोकि भव तरिहऊँ ||”6
तब राम ने उन्हें दास स्वीकार कर उनकी
दीनता को प्रश्रय नहीं दिया बल्कि स्वतंत्र जीवन निर्वाहोन्मुख किया, पूर्णतः
मनुष्योचित व्यवहार | निषादराज गुह जब दूर से ही गुरु वशिष्ठ को अपना परिचय देते हुए
प्रणाम करते हैं तब परिचय जानकर गुरु वशिष्ठ कितनी उत्कंठा और प्रेम से निषादराज
से मिलते हैं, वह क्षण यहाँ द्रष्टव्य है -
“प्रेम पुलकि केवट कहि नामू | कीन्ह दूरि ते दंड प्रनामू
||
रामसखा रिषि बरबस
भेंटा |जनु महि लुठत सनेह समेटा ||”7
रामायण में आदिवासी के लिए प्रेम है, सम्मान है, अपनत्व है साथ ही
जहाँ कुचाल, अत्याचार, अधर्म और अनीति का बोलबाला है वहाँ युद्ध का भी समशील विधान
है | युद्ध में वीरगति या जय-पराजय तो दोनों पक्षों के युद्ध कौशल एवं रणनीति पर
ही निर्भर होती है | लंका विजय से पूर्व राम ने अपने इष्टदेव महादेव की पूजा की |
महादेव को आदिदेव (प्रथम देव) माना जाता है | डॉ. रामदयाल मुंडा के अनुसार “...शिव
एक आदिवासी देवता हैं | आदिवासी सभ्यता के ही अवशेष के रूप में सिंधु घाटी की
खुदाई में उपलब्ध शिव जैसी मूर्ति पशुओं से घिरी मिलती है | ... उनकी वेशभूषा
आदिवासियों की ही तरह है |”8 रावण भी शिवभक्त था | “छोटानागपुर के कुडडुख
भाषा-भाषी उराँव आदिवासी अपने को रावण का वंशज कहते हैं| भाषाविज्ञान के दृष्टिकोण
से भी उराँव और रावण शब्दों का नजदीकी संबंध स्पष्ट है |”9 रावण के
समुदाय की सदस्य त्रिजटा सीता की शुभचिंतक थी | गिद्धराज जटायु ने तो पुत्री सीता
की रक्षा हेतु अपने प्राणों का भी मोह नहीं रखा | “प्रायः सभी मुंडा आदिवासी
भाषाओँ में सीता का अर्थ हल चलाना ...है | मुंडारी भाषा में एक जदुर गीत भी गाया
जाता है जिसकी प्रथम दो पंक्तियों का अर्थ है :
“हमने हल चलाते समय उसे पाया था |
हम इसे सीता नाम ही
देंगे |”10
उपरोक्त लोकगीत में
सीता सहित जनक को भी आदिवासी बताया जा रहा है |
आदिवासियों का प्रकृति से विशेष जुड़ाव होता है |
वन, पर्वत, खोह, कंदरा, समुद्र और जड़ी-बूटियों से वे भलीभांति परिचित होते हैं |
उनमें कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं, जैसे – वैद्यराज सुषेण, नल-नील (शिल्पी) इत्यादि
| नल-नील जिन्होंने अपनी शिल्पकला द्वारा अपने दल की सहायता से रामसेतु का निर्माण
किया | नल-नील की इस विद्या से राम अनभिज्ञ थे | तभी समुद्रराज से रास्ता देने के
लिए उन्होंने तीन दिनों तक विनयपूर्वक प्रार्थना की | विनीत प्रार्थना की अवहेलना
जान ही उन्होंने लोकशिक्षण और लोकहित हेतु धनुष उठाया और धनुष की एक टंकार हुई
नहीं कि समुद्रराज हाथ जोड़े प्रकट हो गए समाधान देने | समाधान के रूप में नल-नील
की शिल्प विद्या का रहस्य राम के समक्ष उजागर किया, जिससे लंका तक जाने का मार्ग
प्रशस्त हुआ |
रामायण में एक ओर राम के सहायकों (विभीषण और सुग्रीव) का राज्याभिषेक
हुआ और दूसरे पक्ष का चिताभिषेक हुआ | सभी को एक ही लाठी से हाँकना कभी न्यायोचित
नहीं होता है | यदि यही सही होता तो चित्रगुप्त को कर्मफल के बही-खाते से न जाने कब का छुटकारा मिल जाता ! मुनियों
और सज्जनों को त्रास देनेवाले राक्षसों का वध यथायोग्यं तथा कुरु के तर्ज पर राम
ने किया है | राम के इस कार्य में सहयोग देने हेतु स्वयं देवतागण आदिवासी के रूप
में धरती पर आए जो शूरवीर होने के साथ-साथ धीर बुद्धिवाले भी हैं | देखें-
“बनचर देह धरी छिति माहीं |अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ||”11
रामायण में आदिवासी अपनी भूमिका का निर्वाह रामजन्म के पूर्व से ही कर
रहे थे | दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ को पूर्ण करानेवाले ‘शृंगी’ ऋषि भी आदिवासी हैं | “शृंगी
ऋषि एक आदिवासी थे, जो अपने लंबे जटाजूट बालों को सींग से बनी कंघी द्वारा बांधे
रहते थे और जिसका उपयोग अब भी कई आदिवासी जातियों में होता है |” 12
रामायण में आदिवासियों का स्वरूप, उनका आचार-विचार, उनकी मंत्रणा
शक्ति, उनकी संवेदनशीलता तब और उभरकर सामने आता है जब राम अयोध्या का वैभव तजकर पाँव
पयादे ही भ्राता लक्ष्मण एवं भार्या सीता सहित वन की ओर प्रस्थान करते हैं | पहले
तो निषादराज से भेंट, अशोक वृक्ष के तले भरपूर आतिथ्य-सत्कार फिर केवट द्वारा गंगा
पार कराने से पूर्व राम-पद-प्रक्षालन और फिर केवट की जिद कि बस आपकी कुटिया तैयार
करने तक साथ रहने दें | उधर देवता भी कोल-किरात के वेश में वन में आकर पर्णकुटी तैयार
करने में जुटे हुए थे | राम के वनागमन का समाचार ज्योंहि कोल-किरातों को मिली वे प्रेमसहित
कंद-मूल लेकर ऐसे दौड़े मानों अपनत्व का उफनता सागर वनवासी राम की ओर उमगता चला आ
रहा हो | उस सहज स्नेहसागर के हर बूंद को राम ऐसे सहेज रहे हैं जैसे पिता छोटे
बालकों की बातों को समेटते हैं | द्रष्टव्य है –
“हम सब भांति करब
सेवकाई | करि केहरि अहि बाघ बराई ||
बन बेहड़ गिरि कंदर
खोहा |सब हमार प्रभु पग पग जोहा ||
तहँ तहँ तुम्हहि
अहेर खेलाउब | सर निरझर जलठाउँ देखाउब ||
हम सेवक परिवार समेता
| नाथ न सकुचब आयसु देता ||
दो० – बेद बचन मुनि
मन अगम ते प्रभु करुना ऐन |
बचन किरातन्ह के
सुनत जिमि पितु बालक बैन ||”13
यह राम का स्नेहभरित
नया संसार है और विरहलीन अयोध्या में पशु भी विकल हैं | उधर निषादराज ने व्याकुल
सुमंत्र और भरत को ढाढस बँधाया और इधर सभी निषाद राम विरह में विकल घोड़े की व्याकुलता से विकल हो रहे हैं, द्रष्टव्य है -
“ नहिं तृन चरहिं न
पिअहिं जलु मोचहिं लोचन बारि |
ब्याकुल भए निषाद सब
रघुबर बाजि निहारि ||”14
अंतःकरण में ऐसी संवेदनशीलता,
शुद्धता और निर्मलता यहीं मिल सकती है | बनावटीपन
से सर्वथा अनभिज्ञ पर स्वाभिमानी आदिवासी समाज, वन में भरत के संग आए अयोध्या समाज
के सम्मुख अपनी जीवन शैली को बिना किसी दुराव-छिपाव के विनयशील भाषा में प्रकट
करते हैं | द्रष्टव्य है -
“तुम्ह प्रिय पाहुने
बन पगु धारे | सेवा जोगु न भाग हमारे ||
देब काह हम तुम्हहि
गोसाँई | ईंधनु पात किरात मिताई ||
यह हमारि अति बडी
सेवकाई | लेहिं न बासन बसन चोराई ||
हम जड़ जीव जीव गन
घाती | कुटिल कुचाली कुमति कुजाती ||
पाप करत निसि बासर
जाहीं | नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं ||
सपनेहुँ धरमबुद्धि
कस काऊ | यह रघुनंदन दरस प्रभाऊ ||”15
आदिवासी समाज अपने
जीवन की विपन्नता में भी अपनी संस्कृति और परंपराओं का निर्वाह जिंदादिली से करते
हैं | घोर विपत्ति की स्थिति में भी साहस और जुझारूपन से कार्य संपादित करना इनकी
विशेषता है जिसके सर्वोपयुक्त उदाहरण हैं हनुमान जिन्होंने बारंबार असाध्य को
साधते हुए सबको विपत्तियों से उबारा है | रामायण में आदिवासी गरिमामंडित हैं |
संदर्भ सूची :
1.
मीणा, गंगा
सहाय (2014), आदिवासी साहित्य विमर्श, पृ.19
2.
चतुर्वेदी,जगदीश्वर.
आदिवासी अवधारणा की तलाश में-1, jagadishwarchaturvedi.blogspot.in
3.
गुप्ता,
रमणिका (2008), आदिवासी कौन, राधाकृष्ण प्रकाशन, संपादकीय : जरूरत है बिरसा के
विस्तार की, पृ.7
4.
तुलसीदास,गोस्वामी.
रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता प्रेस लंकाकांड, 113-4
5.
वही,
उत्तरकांड,19ग-2
6.
वही,
उत्तरकांड, 17ख -4
7. वही, अयोध्याकांड, 242-3
8.
गुप्ता,
रमणिका (2008), आदिवासी कौन, राधाकृष्ण प्रकाशन. मुंडा, डॉ. रामदयाल, भारतीय संस्कृति को
आदिवासियों की देन, पृ. 96
9.
वही,
पृ. 99
10. वही, पृ. 98
11. तुलसीदास,गोस्वामी. रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता
प्रेस बालकांड 187-2
12. गुप्ता, रमणिका (2008), आदिवासी कौन, राधाकृष्ण
प्रकाशन, पृ. 98
13. तुलसीदास,गोस्वामी. रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता
प्रेस अयोध्याकांड, 135-3, 4; 136
14. वही, 142
15.
वही,
250-1,2,3
रविवार, 26 अगस्त 2018
सोमवार, 2 जुलाई 2018
शुक्रवार, 29 जून 2018
शार्प रिपोर्टर 'उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड महाविशेषांक’
उत्तरप्रदेश-उत्तराखण्ड महाविशेषांक
(साहित्य, समाज और संस्कृति का उत्कृष्ट
दस्तावेज)
समाज के
प्रति जागरूक रुख अख्तियार करने वाली शार्प रिपोर्टर पत्रिका का ‘उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड
महाविशेषांक’ (अप्रैल-मई, 2018) का विमोचन द्विदिवसीय मीडिया समग्र मंथन (7-8 अप्रैल 2018)
के राष्ट्रीय समारोह के दौरान आजमगढ़ में
भव्यता से संपन्न हुआ |
पत्रिका का यह विशेषांक नौ खंडों में विभक्त है |
इनमें से आठ खंड उत्तरप्रदेश, बुन्देलखण्ड और उत्तराखंड की यथा स्थिति का सम्यक
आंकलन है | यह साहित्य सहित कला-संस्कृति के सामाजिक सरोकार और प्रदेश की राजनैतिक
एवं प्रशासनिक ढाँचे का संग्रहणीय संकलन होने के साथ-साथ जन की जागरूक मानसिकता का
द्योतक है | पहले खंड ‘सफरनामा’ में संकलित डॉ. मधुर नज्मी का आलेख ‘शार्प है
‘शार्प रिपोर्टर’ का सफर’ जहाँ समाज के ज्वलंत मुद्दे उठानेवाले शार्प रिपोर्टर के
कुछ अतिविशिष्ट अंकों पर प्रकाश डालता है वहीँ दूसरी ओर द्विदिवसीय मीडिया समग्र
मंथन की जीवंत प्रस्तुति देता हुआ वीरेंद्र सिंह का आलेख ‘मरना जिसको आता है जीने
का अधिकार उसी को’ है | संपादकीय ‘दस साल
पहले या दस साल बाद’ में मीडिया समग्र मंथन 2018 को लक्ष्य करते हुए अरविंद कुमार
सिंह ने लिखा है, “यह जलसा दर्द और अभाव की रोशनाई से संघर्ष पथ पर लिखा गया है |
अपमान और जलालत को झेलते हुए चलने का हुनर सीखा है |” एक दशक की इस संघर्षशीलता के
साथ ही संघर्ष के उस क्षण में आत्मीय भाव से साथ निभाने और हौसला बढ़ाने वाले सच्चे
सहयोगियों और मित्रों का अमिट स्मरण भी है इनका आलेख ‘संघर्ष का एक दशक’ |
उत्तरप्रदेश के ऐतिहासिक, भौगोलिक, राजनैतिक,
प्रशासनिक और संवैधानिक ढाँचों के अतीत और वर्तमान स्थिति से रूबरू कराता हुआ खंड “सूबे का सच” में भाषिक परिदृश्य भी शामिल है
जिसके तहत आधुनिक आर्यभाषाओं के वर्गीकरण के साथ हिंदी भाषा के विकास पर चर्चा की
गई है | गाय और गंगा जो भारतीय संस्कृति में आस्था के दिव्य प्रतीक के रूप में
उच्चासन पर विराजित हैं इनसे संदर्भित
आलेख में इनके संरक्षण पर बल दिया गया है जिससे मानव समाज भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति का अपना ध्येय साथ साथ
साध सके | सांस्कृतिक-साहित्यिक समृद्धि के पश्चात् भी जो कराह यहाँ कायम है, वह
क्यों है ? – सत्ता और राजनीतिकरण से आनेवाली खुशहाली और बदहाली जैसे तथ्यों से
जुड़े आलेख बेबाक लहजे में लिखे गए हैं | समाजवादी आंदोलन जिसने युवा राजनीति को
बदलाव का आधार बनाया, उसमें शीर्ष नेताओं (आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ.
राम मनोहर लोहिया) का अवदान और उनकी भूमिका को चिन्हित करता हुआ आलेख एवं
उत्तरप्रदेश की महत्वपूर्ण हस्तियों का कार्य-परिचयात्मक आलेख भी पत्रिका में
शामिल है जिसमें उपेक्षित रहे राष्ट्र गौरव ‘सेनानी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली’ को भी
शामिल किया गया है | “महात्मा गाँधी ने गढ़वाली से प्रभावित होकर कहा था, “मुझे एक
चंद्र सिंह गढ़वाली और मिलता तो भारत कभी का स्वतंत्र हो गया होता |” बैरिस्टर
मुकुंदी लाल ने कहा था – “आजाद हिंद फ़ौज का बीज बोनेवाला वही है |” (पृ. 78) |
समाजवादी आन्दोलन के दस्तावेज रूप में ‘नेहरु का लोहिया के नाम पत्र’ एवं व्यक्ति
विशेष खंड के अंतर्गत गीतकार इंदीवर, विश्वबंधुत्व के समर्थक और अपना कर्तव्य
निभाने को सदैव उद्द्यत रहनेवाले डॉ. श्रीनाथ सहाय, हिंदी साहित्य जगत को नई काव्य
विधा ‘तेवरी’ देनेवाले प्रो. ऋषभदेव शर्मा के काव्य संसार पर केंद्रित है |
संतों, समाज सुधारकों और साहित्यकारों की
गौरवशाली परंपरा वाले उत्तरप्रदेश की लोकसंस्कृति, लोकगाथाओं, लोकनृत्यों,
लोकगीतों, रानी लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा, मल्ल कला के साथ ही राहुल सांकृत्यायन,
स्व. शिवचरण सिंह, नामवर सिंह , कमलेश्वर, विवेकी राय, आदि कवि गुमानी पन्त,
भारतीय साहित्य की अवधारणा, हिंदीतर क्षेत्र की पत्रकारिता , मीडिया विमर्श , उत्तराधुनिकता,
आधुनिक हिंदी साहित्य, भोजपुरी साहित्य, ब्रजभाषा साहित्य, भक्तिकालीन साहित्य, सूफी
दर्शन, विघटन-बिखराव (धर्म, भाषा, जाति) एवं रूहानियत के मर्म को उभारनेवाले
तथ्यपरक और गवेषणात्मक आलेखों के संग्रहण वाली यह पत्रिका साहित्य, समाज और
संस्कृति का उत्कृष्ट दस्तावेज है | उत्तरप्रदेश के साथ ही बुन्देलखण्ड और
उत्तराखंड की जोरदार उपस्थिति यहाँ सुनिश्चित की गई है | यह राष्ट्र के हर्ष और
आक्रोश का उद्गार होने के साथ ही राष्ट्र की ‘उन्नति और अवनति’ – ‘ऐश्वर्य और
बदहाली’ की समशील दास्तान भी |
मंगलवार, 1 मई 2018
मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018
सुनो तो सही

सुनो तो सही
ज्ञानतत्व और स्नेहभरित मन की संयुक्त अभिव्यक्ति
डॉ. पूर्णिमा शर्मा (1965) प्रतिष्ठित समीक्षक, लेखिका और कवयित्री होने के
साथ-साथ हैदराबाद स्थित “हिंदी हैं हम विश्व मैत्री मंच” नामक साहित्यिक संस्था की माननीय उपाध्यक्ष हैं
| इन्होने मासिक स्तंभ ‘प्रसंगवश’ का कई वर्ष तक प्रकाशन किया है | समीक्ष्य काव्य
संग्रह “सुनो तो सही (2017)” इनकी सद्यःप्रकाशित रचना है जिसका किंडल संस्करण
अमेजन पर पठन-पाठन एवं प्राप्ति हेतु उपलब्ध है |
इनकी विद्वता का उल्लेख वरिष्ठ
साहित्यकार एवं शिक्षाविद् प्रो.सियाराम तिवारी ने अपने आलेख “हैदराबाद जैसा मैंने
देखा” में किया है | ‘परम पुनीता, गुरुमाता डॉ. पूर्णिमा शर्मा को सादर समर्पित’
यह समर्पण वाक्य डॉ. अनुपमा तिवारी ने अपने सद्यः प्रकाशित पीएचडी शोध ग्रन्थ
‘मेहरुन्निसा परवेज की कहानियाँ : सामाजिक यथार्थ और कथाभाषा’ में लिखा है | मन को
अभिभूत कर देने वाला यह संबोधन गुरुकुल परंपरा की याद दिलाता है और शीश स्वतः श्रद्धा
और आदर के वशीभूत होकर नत हो जाता है |
समीक्ष्य काव्य संग्रह “सुनो तो सही” में कुल 22
कविताएँ हैं जो जन और जीवन के नब्ज को टटोलने के क्रम में सहसा ही यथार्थ को
उघाड़ने का उद्यम कर जाती हैं | अपने इस स्वाभाविक प्रयास में कवयित्री के शब्द
युगहित में आवश्यक परिवर्तन की ओर इशारा करते हुए हृदय की भीतरी तह को छूकर, आँखों
में सफलता के बाद का थिरता जल और बृहत्तर परिवर्तन की चाह से जुड़ी आशा की मीठी मुस्कान
लाने वाले बन गए हैं | द्रष्टव्य है परिवर्तन-कामी स्त्रियों की दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा
निर्णीत एक परिवर्तन, कवयित्री के शब्दों में –
“और तय कर लिया है –
लेकर रहेंगी अपने हिस्से का आकाश ;
भरेंगी ऊँची उड़ान ,
नापेंगी सातों समंदर
और साबित करेंगी
–
हम सिर्फ आँगन लीपने
और
झोलों में बंद करने की चीज नहीं हैं
हम बेटियाँ हैं ! हम स्त्रियाँ हैं !!” (बेटियाँ हैं हम, पृ.30)
सशक्त और मुस्कुराती स्त्री की अंतरात्मा की न
दिखाई देनेवाली कलप को भी कवयित्री ने पूरे मनोयोग से न सिर्फ उकेरा है वरन जमीनी
विकल्प भी दिया है | आधुनिक समाज में विचारों और भावनाओं का यह उत्तर पक्ष ही है कि
अपने वजूद को भूलकर और अपने जड़ों से कटकर जीने की नसीहत देने की पूर्ववर्ती परंपरा
से अलग हटकर माँ के रूप में स्त्री अपनी सशक्तता जताते हुए कहती है –
“मैं खड़ी हूँ – अपनी बेटी के साथ;
मैं उसका कल हूँ;
और मैं खुद को जलाने की इजाजत नहीं दूँगी !!” (बेटी
की विदाई, पृ. 28)
यह सशक्तता हर जगह या तो सधती नहीं या फिर
वातावरण पर हावी हो जाती है दूषित मानसिकता, तभी भ्रूणहत्या-सा जघन्य अपराध समाज में निरंतर
आश्रय पाए हुए है | अपनी मृत्यु की प्रक्रिया के हर चरण को देखती अवाक् अजन्मी
बच्चियों का अपनी माँ से किया जाने वाला यह प्रश्न यहाँ द्रष्टव्य है –
“जन्म से पहले क्यों पढ़े जा रहे हैं मृत्यु के
मंत्र ?
क्यों मिलाया जा रहा है तुम्हारे गर्भजल में
जानलेवा जहर ?” (गर्भ प्रश्न, पृ.22)
भ्रूणहत्या सहित कई ऐसे मुद्दों को कवयित्री ने
उठाया है जो ज्वलंत होने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी भी हैं और हृदयविदारक भी | इसी
क्रम में प्रस्तुत है भारत से निर्यात की जानेवाली मूंगफली को छीलती भारतीय मजदूर
औरतों का एक शब्दचित्र द्रष्टव्य है –
“और छिल जाते हैं उनके होंठ
इस तरह कि –
जुड़ नहीं पाते
एक प्याली चाय पीने की खातिर भी कभी !” (मूंगफली
के दाने, पृ.6)
सियासती विद्वेष से उत्पन्न रूह कंपा देने वाली परिस्थिति
(प्रजा का हालचाल, पृ.7), सहनशील धरती को रुलाते आदमी की विकास यात्रा के उल्टे
कदम (धरती रोती है पृ.13-14), दंगे और दहशत के माहौल में परिवारजनों का सशंकित -
भयभीत मन और सारी भयावहता के बीच बचते-बचाते घर लौटी महिला की मनःस्थितियों के
चित्रण के साथ ही इस संग्रह की कविताएँ कहीं पीढ़ी अंतराल के जरिए गणतंत्र दिवस के
बदलते मायनों से जूझती नजर आती हैं तो
कहीं आत्मीयता के खोल में छिपी दरिंदगी की लगातार जीत से झेंपे हुए मुँह बाए
इंसानों से सामना करा जाती हैं | इस प्रक्रम में सामने आता है न्याय व्यवस्था के
नैयायिक निर्णय का सच | समीक्ष्य काव्य संग्रह की ‘स्त्री हूँ’, ‘वक्त की बिल्ली’,
‘छाया सीता’, ‘जय हिंद’, ‘मन’ और ‘प्रार्थना’ शीर्षक कविताएँ भी अपने आप में
विशिष्ट हैं | साहित्य और समाज के सामयिक यथार्थ को परिलक्षित करती ‘यह समय’
शीर्षक एक त्रिपदी भी इस संग्रह में शामिल है |
‘वसंत आ
गया’ शीर्षक कविता में जहाँ महानगरीय जीवन में प्राकृतिक सामीप्य के घोर अभाव की अरुचिपूर्ण
स्थिति में कवयित्री द्वारा मुट्ठी भर वसंत को अपने गाँवों की अमराई से भर लाने की
चाहत अभिव्यक्त हो रही है वहीँ एक अन्य कविता में वे वर्तमान प्रगतिशीलता की दिशाहीन
आपाधापी के बीच ‘प्यार का पथ’ खोजने को उद्दत हैं, द्रष्टव्य है -
‘किसी को परवाह नहीं –
न धर्म की, न शर्म की .
बस दौड़े जा रहे हैं सब –’
पुनः देखें -
‘हर रास्ता
ले जाता है बाजार तक .
वह रास्ता कहाँ है
जो ले जाए प्यार तक ?’ (रास्ते, पृ.8)
काव्य संग्रह ‘सुनो तो सही’ की कविताओं में
मानवीय संवेदनाएँ अपने अंधतामुक्त स्वरूप
में उपस्थित हैं | अपनी कविताओं में कवयित्री ने मानवीय संवेदनाओं की प्रभावपूर्ण
अभिव्यंजना हेतु साहित्यिक प्रतीकों के साथ- साथ इतिहास, दर्शन, लोक और मिथक के
संदर्भों का भी यथायोग्य प्रयोग किया है | सामयिकता से लबरेज इन कविताओं को
कल्पनाओं से कोई परहेज नहीं है | संग्रह की अधिकांश कविताओं में स्त्री की गरिमा
के पक्ष में स्त्री-स्वर प्रबल है | स्त्री पक्ष की प्रबलता से अन्य पक्षों का
अस्तित्व कहीं भी बाधित नहीं हो रहा है | हिंदी साहित्य-संसार में कवयित्री डॉ.
पूर्णिमा शर्मा का यह सराहनीय अवदान साहित्यिकों की बौद्धिक भूख की शांति एवं सामाजिकों
की बौद्धिक जागृति का निमित्त होने के साथ ही सामान्य पाठकों और सामान्य वर्ग के
लिए उनके अपने जिए जाने वाले और बहुधा नकार दिए जाने वाले सत्यों से साक्षात्कार
है |
समीक्षित कृति : सुनो तो सही / कवयित्री : डॉ.
पूर्णिमा शर्मा / संस्करण : प्रथम (2017) / प्रकाशन : किंडल (अमेजन) / मूल्य : 100 रुपए / पृष्ठ : 33
अनामिका के साहित्य में वृद्धावस्था विमर्श
अनामिका के साहित्य में वृद्धावस्था विमर्श
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवाणि गृहणति नरोपराणि
|
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानी
देहि ||22||
मृत्यु के आध्यात्मिक सत्य को व्यक्त करता यह
श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में है | यहाँ बताया गया है कि जैसे हम
पुराने वस्त्रों का त्याग कर नए वस्त्र धारण करते हैं वैसे ही आत्मा पुराने शरीर
को छोड़कर नया शरीर धारण करती है | अनामिका ने अपने साहित्य में इस आध्यात्मिक सत्य
के मर्म को वृद्धावस्था की आहत मनः स्थिति से जोड़ने की चेष्टा की है |
वृद्धावस्था माने जीर्ण-शीर्ण शरीर जिसे बदलने के
लिए आतुर आत्मा मृत्यु का वरण करती है और नया शरीर धारण करती है | वास्तव में तो
वृद्धावस्था इंसानों की आत्मा को ही जीर्ण बना देती है, उसे तार-तार कर देती है और
कुछ बदलने का स्कोप भी नहीं छोडती | अपने रचे संसार में अपनी अवहेलना देखने को
अभ्यस्त ये वृद्ध अपने चौथेपन में अपनों के लिए आदमी कम और उपयोगी अधिक हो जाते
हैं | घर में वृद्धा स्त्री की उपयोगिता को लक्षित करते द्रष्टव्य हैं ‘अनामिका’
के शब्द :
“जो घर में हो कोई वृद्धा –
खाना ज्यादा अच्छा पकता है ,
पर्दे-पेटीकोट और पायजामे भी दर्जी और रफूगरों के
मोहताज नहीं रहते
रहती हैं वृद्धाएँ, घर में रहती हैं
लेकिन ऐसे जैसे अपने होने की खातिर हों
क्षमाप्रार्थी
लोगों के आते ही बैठक से उठ जातीं,
छुप-छुपकर रहती हैं छाया-सी, माया-सी |”1
इन बूढी मांस-अस्थियों के ढांचे के नसीब में होता
है-घर का एक निर्धारित कोना जहाँ सारे घरेलू कामों को निपटाना इनकी अनचाही पर
अनिवार्य जिम्मेदारी हैI ऐसे में ये लहूलुहान हृदय और पथराई आँखें किन्हें भला
कहेंगी !
“उन्हें सबसे अच्छे लगते हैं वे लोग
जो पास नहीं आते और कभी जान नहीं पाते
कि छाले
हैं छालों के भीतर I”2
आधुनिक जीवन शैली की व्यस्तता ने ममता और आशीष को
महसूस करने की मानव के भीतर की क्षमता को कहीं गुमा दिया है तभी तो आवेगवश स्नेह –
आलोड़न उमड़ता है और तुरंत निरस्त भी हो जाता है | इसकी चपेट में नन्हा बचपन भी आ
चुका है | दादा-दादी, नाना-नानी के साथ बिताने के लिए उनके पास भी समयाभाव है |
स्वयं को अद्यतन रखने के चक्कर में कुछ बहुत महत्वपूर्ण पीछे छूट रहा है | समाज
में बचपन और बुढ़ापे का यह बदलता समीकरण यहाँ द्रष्टव्य है -“बच्चों को
स्कूल-ट्यूशन-टीटी-कोचिंग और गिटार-क्लास के अभंग सिलसिले से जो कभी फुर्सत भी
मिलती तो कंप्यूटर दादी या फोन दादा की गोद उन्हें अधिक विस्तृत और आरामदेह दीखती
क्योंकि वहाँ न उपदेशों का च्यवनप्राश था न कोई और रोना-गाना !... वह एक सार्वजनिक
खटिया जो गलियों में किसी घर के आगे यों ही पड़ी रहती थी – वृद्धों और बच्चों का
फेफड़ा ही मानिए उसको – एक बड़ा ब्रीदिंग स्पेस !”3 सामूहिक ब्रीदिंग
स्पेस की निःस्वार्थ परिकल्पना आज की तारीख में एक्सपायर कही जाएगी |
ग्रामीण परिवेश के आदी वृद्धजनों के लिए महानगरीय
जीवन माने कंक्रीट का वह जंगल जहाँ साँस लेने के लिए हवा भी शुद्ध न मिले तो शुद्ध
मन के मिलने की बात तो बहुत दूर की हुई | घर के भीतर भी कभी प्रत्यक्ष तो कभी
परोक्ष रूप में पुत्र-पुत्रवधुओं द्वारा
निर्गत विधि-निषेध की सैंकड़ों हिदायतें - अंतरात्मा को रुलाने के लिए एकदम
पर्याप्त ! इस मामले में वृद्ध पुरुषों को थोड़ी राहत जरुर रहती है पर वृद्धा
स्त्री की मनोदशा... , द्रष्टव्य है – “ऐसी महीन मार मारी जाती कि तिलमिला जाते
दोनों ....सीनियर कक्कड़ तो बाहर हो भी आते – मुहल्ले के बुजुर्गों में दो-एक बचे
हुए थे, उनके साथ शतरंज खेल आते, पर सास तो तरस जाती कि स्नेह-सहानुभूति के दो बोल
भी कोई उनसे बोल जाए |”4 लिंग भेद की गृह राजनीति मानो स्त्री जीवन की
सनातन साथी ही हो जो जन्म के पहले से मृत्युपर्यंत परछाई सी संग लगी रहती है | “...यह
पारिवारिक मापदंड कितना असहनीय है – “ ‘राम, पाठशाला जा !/ राधा, खाना पका !/ राम,
आ बताशा खा !/ राधा, झाड़ू लगा !” ( बेजगह ,पृ. 11)| ...‘दुलारू राम‘ जब ‘कमाऊ राम’
बन जाते हैं तब इनके फुर्सत के दो पल भी इनके वृद्ध अभिभावकों को मुश्किल से नसीब
होते हैं I”5 तिनका तिनके पास उपन्यास की पात्र अवंतिका अपनी सास का
सम्मान करने के साथ अपने जीवन में उनकी अहमियत का उन्हें अहसास भी कराती हैं |
अपने इस कार्य में अपने पुत्र डॉ. स्पंदन का योगदान उन्हें सहज ही प्राप्त हो जाता
है | डॉ. स्पंदन का अपनी दादी के प्रति यह रुझान सन 38-39 की उस घटना की याद
दिलाता है जब नेहरु जी आबिदा के घर ठहरे थे | तब उन्होंने अपनी व्यस्तता के बावजूद
बीमार नानीजान को इतना प्यार दिया और इतना ख्याल रखा की वे उनमें अपने बेटे को
देखने लगीं थीं | “...बिल्ली भी मात हो जाये – इतने धीमेपन से सोने की तयारी की और
यह सब इसलिए की मेरी बीमार नानी जाग न जाये |”6 आज के यांत्रिक दौर में वृद्धावस्था में सारी
सुख सुविधाओं के मिलने के बाद भी भावनात्मक अभाव बना ही रहता है | इस अभाव की कमी
प्री रिकार्डेड संदेश सुनने से थोड़े न दूर होगी जैसा कि उपन्यास तिनका तिनके पास
में अवंतिका की माँ करती हैं | उनकी आँखों में झलकता अकेलापन और बीते हुए पलों के तैरते
अक्स को तारा ने भांप ही लिया |
सब कुछ बहुत तेजी से परिवर्तित हो रहा है | शीश
पर वृद्ध का हाथ होना कभी सौभाग्यसूचक माना जाता था पर आज उनकी उपस्थिति जीवन पर
अनचाहा बोझ है | “माँ-बाप माने क्या – एक बूढा फर्नीचर, तीन टांग की कुर्सी,
....गृहकलह से बड़े लोग बचकर चलते हैं, माँ-बाप को ही समझाए रखते हैं कि बुढ़ापे में
देवता होकर रहना चाहिए |”7 देवता के साक्षात् स्वरूप को देवता होने की
नसीहत देते योग्य बुद्धिजीवियों की खोखली योग्यता के समक्ष अनामिका की कविता
‘पत्ता-पत्ता ,बूटा –बूटा’ की इस छोटी
बच्ची की मासूमियत कितनी ऊँची लगती है जो अपनी माँ से कहती है –
“माँ, तुम बूढी मत हो जाना कभी !
...क्या पता –मैं कभी स्कूल में होउँ
और मच जाए भगदड़
तो कौन तुमको बचाएगा ?”
जीवन के अंतिम चरण में भरेपूरे परिवार के मध्य अकेलेपन का दंश झेलती पीढ़ी की पीड़ा की अनुभूति से अभिभूत छोटी बच्ची का निम्न कथन यह संदेश देता प्रतीत हो रहा है कि “बेटियों के साथ माँ-बाप अधिक सुरक्षित हैं |”8 अनामिका मानती हैं कि लड़कों ने “अभिभावकों को अपने पास रखने का मौका गँवा दिया है - चांस एक्जास्ट कर दिया है ....एक मौका लडकियों को दीजिये ...इससे भ्रूण हत्यायों में भी कमी होगी |”9 इसके पीछे वे इमोशनल कोशेंट का तर्क देती हैं | बेटियों को मिले अभिभावक के लालन-पालन की जिम्मेदारी, संपत्ति में कानूनन हक तो उन्हें मिल ही गया है | यहाँ एक प्रश्न उठता है कि बेटी जैसी पुत्रवधू के आशियाने में वृद्धावस्था बेहाल क्यों है ? पुत्रवधू और सास-ससुर के बीच बेटी और माँ-बाप वाला समीकरण हर बार क्यों नहीं बनता है ? जहाँ यह समीकरण बन जाता है वहां जिंदगी कितनी खुशहाल होती है ! वह सुराख़ कैसे बन गई जिससे हमारा इमोशनल कोशेंट बहा जा रहा है ? ‘पुत्री पवित्र किये कुल दोउ’ और ‘वधू लरिकन्ही पर घर आई | राखेहु नयन पुतरी की नाई ||’ - वाली उक्तियाँ समाज में चरितार्थता नहीं पा रहीं हैं |
जीवन के अंतिम चरण में भरेपूरे परिवार के मध्य अकेलेपन का दंश झेलती पीढ़ी की पीड़ा की अनुभूति से अभिभूत छोटी बच्ची का निम्न कथन यह संदेश देता प्रतीत हो रहा है कि “बेटियों के साथ माँ-बाप अधिक सुरक्षित हैं |”8 अनामिका मानती हैं कि लड़कों ने “अभिभावकों को अपने पास रखने का मौका गँवा दिया है - चांस एक्जास्ट कर दिया है ....एक मौका लडकियों को दीजिये ...इससे भ्रूण हत्यायों में भी कमी होगी |”9 इसके पीछे वे इमोशनल कोशेंट का तर्क देती हैं | बेटियों को मिले अभिभावक के लालन-पालन की जिम्मेदारी, संपत्ति में कानूनन हक तो उन्हें मिल ही गया है | यहाँ एक प्रश्न उठता है कि बेटी जैसी पुत्रवधू के आशियाने में वृद्धावस्था बेहाल क्यों है ? पुत्रवधू और सास-ससुर के बीच बेटी और माँ-बाप वाला समीकरण हर बार क्यों नहीं बनता है ? जहाँ यह समीकरण बन जाता है वहां जिंदगी कितनी खुशहाल होती है ! वह सुराख़ कैसे बन गई जिससे हमारा इमोशनल कोशेंट बहा जा रहा है ? ‘पुत्री पवित्र किये कुल दोउ’ और ‘वधू लरिकन्ही पर घर आई | राखेहु नयन पुतरी की नाई ||’ - वाली उक्तियाँ समाज में चरितार्थता नहीं पा रहीं हैं |
उपन्यास की पात्र शीरीन जब पहली पोस्टिंग पर
बिहार गयी तब उसने वहां देखा, “पतोहू से खाना माँगा तो वह तिनकी बच्चों को जुड़
नहीं रहा और इनका ही पेट पहाड़ हुआ है |” बूढी ने भूखे ही पेट बीड़ी सुलगायी, खुरपी
उठायी और चल दी कि कहीं तो जाना चाहिए |...कुछ देर ही बाद जब लुढ़की तो जीवन की
बीड़ी बुझ चुकी थी, पर हाथ की बीड़ी सुलगी हुयी थी ...|”10 अपनी माटी पर
प्राण त्यागने का सुख उनकी आत्मा को अवश्य मिला पर जो वृद्ध अपनी जमीन से दूर,
सुविधा की आस में शहर आ जाते हैं, वे तो अपमान का कडुवा घूँट पी, तिल-तिल मरते हैं
| अपने ही अंश के शीशमहल में अकेलेपन से उकताए और संवाद के लिए व्याकुल ये वृद्ध
धीरे-धीरे एक नए परिवार का पुनः सृजन कर लेते हैं | उनका यह नया परिवार भाव-संबंध
पर आधारित होता है | इस परिवार की सदस्यता पाते हैं - कबाड़ी वाले, सब्जी वाले, दूध
वाले, कुछ पड़ोसी और हर वह इंसान जिसके मन में वृद्धों के लिए आत्मीयता भरा स्नेह
और सम्मान है | द्रष्टव्य है, “ वे तो जैसे गूँगी ही हो चलीं ... फिर धीरे-धीरे
सब्जी वाले, दूध वाले, कबाड़ी और दो-एक पड़ोसी/ पड़ोसिनों के साथ उनका जो छिटपुट
संवाद शुरू हुआ, उसमें नए तरह के संबंध विस्तार को अच्छी-खासी गुंजाइश होने लगी |”11
सृष्टि का सृजनहार भी वृद्धों के इस नए आत्मीय संसार में नन्हे बच्चे के रूप में शामिल
है | उपन्यास की भगवंती बुआ को तेज भूख लगी ऊपर से प्रसाद की थाली गिर गई | अब वह
कटकटाकर अपने लड्डू-गोपाल की ओर दौड़ीं और “दांत पीसकर बोली-अब का खैब , ओ
मुँहझौंसो |”12 सामान्यतः डपटने की परंपरा का स्थान अब ख़ामोशी ने ले
लिया है | कुछ कहने से बेहतर है अपना ही मन मार लेना – यह सोच हर जगह कायम नहीं है
| अपने बच्चे से अपनेपन की उम्मीद खोकर भी आत्मीय भाव से जुड़े लोगो से प्यार पाने
की ललक उनमें शेष रहती है | एक वृद्धा अपने बेटों के पास से भागकर इन्नर बबुआ के
घर आ जाती है क्योंकि बचपन में अपने ही हाथो से इन्होंने बबुआ की मालिश की थी |
यात्रा में टीटी ने टोका तो उसे डपट भी दिया, “वृद्धा की अकबक तो झूले की रसरी है –
एक बार बंधा तो फँसा – झूलते रहो आगे – पीछे बचवा बनकर, बिसर चलो सब काम-काज !”13
जिस बच्चे की मुस्कान की खातिर अभिभावक जीवन भर
कष्ट उठाते हैं वही बच्चे बड़े होकर उनके लिए मुस्कान लाने की कोशिश करना तो दूर
अपने जीवन में उनकी अहमियत को भी रेखांकित नहीं करना चाहते हैं ! यही जीवन है | भगवंती
बुआ ने भी बहुत मनुहार से पाला था अपने बच्चों को किंतु जब बुआ वृद्ध हुई तो
उन्हें अपने बच्चों से उतना अपनापन महसूस नहीं हुआ | उन्होंने ठान लिया अहसान और
पराएपन का एक निवाला भी अपने हलक में न उतरेंगी | शहर आकर उन्होंने सब्जी का एक
छोटा व्यापार शुरू किया | वहां दिलखुश कबाड़ी वाले का परिवार उनकी हर मनावन करने को
तैयार रहता था | एक दिन उसने डरते-डरते बुआ से मच्छी खाने के लिए पूछा | सामने तो
वे कुछ न बोलीं पर बाद में चख आयीं फिर मंदिर में हनुमान चालीसा का पाठ भी कर लिया
| आज से जुड़ने के लिए वृद्ध पूर्वाग्रह को तोड़ कर उन्मुक्तता से जीना चाह रहे हैं
| “जब से घर छूटा था, परलोक का डर भी मन से निकल ही गया था ! ...इतने बरस नियम
अगोरे, उससे क्या हो गया | कितना सुख काटा | जरा लाँघकर भी तो देखें | पूरे
मुह्हले का आसरा था उनका रोबीला बतरस |”14 अपने बच्चों ने परवाह नहीं
की तो क्या पूरा मुहल्ला ही उनके आँचल के
छाँव में आने को आकुल है | यह है वृद्धावस्था की विराटता !
उम्र के किसी मोड़ पर दो प्रतिद्वंदी रही स्त्री
भी उम्र के इस पड़ाव में आपसी कड़वाहट भूलकर मिठास ही घोलना चाहती है | “श्रीमती बोस
को भी इस उम्र में ढेलाबाई रास्ते का रोड़ा नहीं दिखी | ... एक छोटी बच्ची पाल देने
का जिम्मा उन्होंने सहर्ष ले लिया !”15 वृद्धावस्था स्वांतःसुखाय को
बहुत दूर छोड़ देता है तथा बहुजन हिताय के तर्ज पर अपनों से प्रताड़ित वृद्ध वसुधैव
कुटुंबकम की कल्पना को साकार करते नजर आते हैं |
संदर्भ सूची :
1.
अनामिका (2011), वृद्धाएँ धरती का नमक हैं, कवि
ने कहा, दिल्ली : किताबघर प्रकाशन, पृ.24-25
2.
वही, वृद्धाएँ,
वही, पृ.82
3.
अनामिका (2008), तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी
प्रकाशन, पृ.148, 149
4.
वही, पृ.148
5.
साहित्य और संस्कृति, हमें कायदे से पढ़ो एक एक
अक्षर chandanhindi.blogspot.com
6.
अनामिका (2008), तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी
प्रकाशन, पृ 199
7.
वही, पृ.85
8.
साहित्य और संस्कृति, हमें कायदे से पढ़ो एक एक
अक्षर chandanhindi.blogspot.com
9.
अनामिका (2008), तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी
प्रकाशन, पृ.298
10.
वही, पृ.27
11.
वही, पृ.76
12.
वही, पृ.285
13.
वही, पृ.285
14.
वही, पृ286
15.
वही, पृ.249
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