Tuesday, January 30, 2018

कृष्णभक्त कवियों की रचनाओं में रामकथा

 


कृष्ण भक्तकवियों की रचनाओं में रामकथा 

राम भक्तिकाव्य अपनी समग्रता में मानवता का पर्याय, लोकहित सर्वोपरि का उद्घोषक और सामासिक संस्कृति की अनन्य एकता का प्रतिपादक होने के साथ ही एक महत्तर उद्देश्य का काव्य है | वह महत्तर उद्देश्य है, “मनुष्य होते हुए भी मनुष्यता के अधिकार से वंचित, पशुवत जीवन जीने को बलात प्रस्तुत मनुष्यों में उनके मनुष्य होने के उचित अधिकार बोध को जागृत करना |” राम भक्तिकाव्य की पावन धारा के सतत प्रवाहशील बने रहने का जो उद्यम राम भक्त कवियों ने आरंभ किया , उसमें अपना योगदान देने से कृष्णभक्त कवि भी पीछे नहीं रहे | वाल्मीकि रामायण के आधार पर मर्यादा भाव को सर्वोपरि रखकर इन्होंने अपने रामकाव्य का प्रणयन किया | इस शृंखला के प्रमुख कवि हैं – विद्यापति, मीराबाई, रहीम, हितहरिवंश, सूरदास, नंददास, गोविंदस्वामी, परमानंददास, परशुराम देवाचार्य, माधवदास जगन्नाथी और शेख | इनमें से अधिकांश कवियों ने मुक्तक ही रचे हैं | विद्यापति के रामभक्ति विषयक अधिकांश पद काल प्रवाह में नष्ट हो गए, अब चार पद ही सुरक्षित बचे हैं | इनके पदों में इष्टनिष्ठा, भक्तवत्सलता, लोकरीति, लोकधर्म और क्षेत्र विशेष की परंपरागत मान्यताएँ दृष्टिगोचर होती हैं | सूरदास ने रामकथा से संबंधित 212 पदों की रचना की है | सूरदास के ये पद सूरसागर और सूर सारावली में संग्रहीत हैं | गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा ‘सूर-राम-चरितावली’ के नाम से इन्हें पुस्तकाकार किया गया है साथ ही डॉ. प्रेम नारायण टंडन ने ‘सूर रामायण’ नाम से इनका संपादन भी किया है |
कृष्ण की आराधिका मीराबाई भी अपने ‘मोर मुकुट धारी’ को राम, रमैया, हरि, गोविंदा इत्यादि नामों से अपने पदों में पुकार लेतीं हैं | इस संदर्भ में विद्वानों का मत है कि, “रामसनेही संप्रदाय के गुटकों में मीरा के ‘गिरधर’ अनेक स्थानों पर ‘राम’ और ‘रमैया’ बन गए हैं |”1 मीरा के निम्नलिखित पद से राम और कृष्ण के प्रति उनकी अभेद दृष्टि स्पष्ट है, द्रष्टव्य है –

“मेरे प्रीतम राम कूं, लिख भेजूँ रे पाती |
स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हौ, जानि बूझ गुझबाती |”

मीरा ने क्रमबद्ध रामकथा की रचना नहीं की लेकिन इन्होंने राम, कृष्ण, नृसिंह, वामन इत्यादि  अवतारों को तत्वतः एक माना है | इस आशय का एक पद यहाँ द्रष्टव्य है –

“मन रे परसि हरि के चरण |...
जिन चरण ब्रह्मांड भेट्यो, नख शिखौ श्री भरण ||
जिन चरण प्रभु परसि लीने, तरि गोतम धरण |
जिन चरण कालीहि नाथ्यो, गोप लीला करण ||...
दासि मीरां लाल गिरधर, अगम तारण तरण ||1||”2

लोकरक्षक राम की छाया तले जिस स्वतंत्रता और निश्चिंतता का वरण कोई आतंकित और भयग्रस्त जीव करता है उसका उल्लेख कवि रहीम ने इन शब्दों में किया है –

“गहि सरनागत राम की, भवसागर की नाव |
रहिमन जगत उद्धार कर, और न कछू उपाव ||”3

लोकजीवन में जीवनोद्धार का उपाय राम की शरणागति को मानने वाले रहीम ने अवधी भाषा में ‘बरवै’ की रचना की है | “इस रचना की हस्तलिखित प्रति मेवात से प्राप्त हुई है, जो रहीम के मातामह जमालखां की जमींदारी थी | इसके आरंभ में ‘श्रीरामो जयति अथ खानखाना कृत बरवै आरंभ’ दिया हुआ है | प्रथम छः बरवै में गणेशजी, श्रीकृष्णजी, सूर्य भगवान, महादेवजी, हनुमानजी तथा गुरु की वंदना की गई है | इस प्रति में कुल 101 बरवै हैं... तीन बरवै एक ही स्थान पर राम, नृसिंह तथा कृष्ण के अवतार पर दिए हुए हैं |”4
इस शृंखला में अगला नाम है श्री हितहरिवंश, जिन्होंने राधावल्लभ संप्रदाय  की स्थापना की | नागरी प्रचारिणी सभा के याज्ञिक संग्रह (51/10) में रामभक्ति से संबंधित इनका एक पद संकलित है जिसमें हनुमानजी अशोकवाटिका में माता सीता को सांत्वना दे रहे हैं | हनुमान कह रहे हैं –

“जानकी मैं रघुपति को चेरो |
बीरा दै रघुनाथ पठायो सोध करन को तेरो ||
तेरे कारन स्याम घन सुंदर निकसि कियो बन डेरो |
पदम अठारह दल बानर ले चाहत हैं गढ़ घेरो |
अब जनि सोच करै जिय जननी मानि बचन यक मेरो |
‘हितहरिवंश’ असुरकुल मृग ज्यूँ प्रभुहिं सिंह को चेरौ ||”5

सूरदास ने रामकथा के विहंगम कलेवर को अपने ग्रंथ ‘सूरसागर’ और ‘सूरसारावली’ में समेटा है | यहाँ रामकथा का उसकी समग्रता में रसपान के साथ ही सूर की कुछ मौलिक उद्भावनाएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं | ये  मौलिक उद्भावनाएँ कुलधर्म, लोकधर्म, लोकरीति, लोकपरंपरा तथा लोकविश्वास के साथ गहराई से जुड़ी हुईं हैं | “सूरदास के प्रखर व्यक्तित्व के कारण उन्हें ब्रज-साहित्य का वेदव्यास कहा जा सकता है और उनके सूरसागर को महर्षि वाल्मीकि की रामायण |”राम जन्मोत्सव के समय अयोध्या में कैसे समूचा ब्रह्मांड उमड़ पड़ा और इस अवसर पर दान-मान की जो हर्षोल्लास वाली भारतीय रीति है उसका बड़ा हृदयग्राही चित्रण सूरदास ने किया है ! इस संदर्भ में सूर का पद द्रष्टव्य है –

“रघुकुल प्रगटे हैं रघुबीर |
देस-देस तें टीकौ आयौ, रतन-कनक-मनि-हीर ||
घर-घर मंगल होत बधाई, अति पुरबासिनि भीर |
आनंद-मगन भए सब डोलत, कछु न सोध सरीर ||”7

रामभक्ति से संबंधित नंददास के प्राप्त पदों में धनुष यज्ञ प्रसंग, हनुमान द्वारा समुद्र लाँघना, सीता की खोज प्रसंग शामिल है जिन्हें नंददास ग्रंथावली में देखा जा सकता है | इनके कुछ फुटकर पदों में राम-कृष्ण की अभेदता, रामसेतु, केवट और शबरी का प्रसंग भी सांकेतिक रूप में वर्णित है |
 राम जन्म के अवसर पर दशरथ और कौशल्या के हर्षातिरेक तथा रावण वध के पश्चात् देवताओं के उल्लास से संबंधित पद गोविंदस्वामी के पदसंग्रह में संकलित है | राम जन्मोत्सव के समय के हर्ष और उल्लास से संबंधित तीन पद परमानंददास की कृति परमानंदसागर में संकलित है | निंबार्क संप्रदाय के अनुयाई परशुराम देवाचार्य ने निर्गुण रामभक्ति से संबंधित अपनी रचनाओं को ‘वारलीला’ तथा ‘तिथिलीला’ में संग्रहीत किया है | राम की सगुण भक्ति से संबंधित इनके दो ग्रंथ हैं – ‘रघुनाथचरित’ और ‘दशावतारचरित’ | इन्होने कुछ फुटकर पद भी रचे हैं | खोज विवरण 1935-37 में इनका एक पद प्राप्त हुआ है जिसका उल्लेख हिंदी साहित्य का बृहत इतिहास (भाग-5) पृ. 220 पर किया गया है, द्रष्टव्य है –

“ऐसो राम अकल अविनासी |
ताको दास पडै क्यों फांसी |
हरि दरिया में मुक्ता खेलैं |
राम सुमिरि दुविधा अघ षेलै |
दुविधा पडै सो राम न पावै |
यूँ ही फिरि फिरि जनम गंवावै |
पूरण ब्रह्म एक हरि सोई |
परसराम जानै जन कोई ||”

माधवदास जगन्नाथी जिन्हें नाभादास ने ‘व्यास के जैसा धार्मिक साहित्य का उद्धारक’8 कहा है | रामचरित पर इनकी एक ही कृति मिलती है ‘रघुनाथलीला’ जिसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीकुंज (वृंदावन) में सुरक्षित है | 
कवयित्री शेख की स्वतंत्र कृति उपलब्ध नहीं है | इनकी रचनाएँ कवि आलम की रचनाओं के साथ ‘आलम केलि’ में ही संग्रहीत हैं | इन्होंने अपनी रचना में राम वनगमन के समाचार से व्यथित मातृहृदय का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है जिसका एक अंश यहाँ प्रस्तुत है –

“पसुनि से बैठनि परोसी भये पच्छिन के, झारन के डार बार बार करि रहि है |
सेख भूमि डसि है कि बिस बेलि बसि हैं कि, कुस है कि कांस है कौशल्या काहि क़ाहि है |”9

राम वनगमन के समाचार से सिर्फ माताएँ ही व्यथित नहीं हुईं | यह समाचार पूरे समाज को विकल कर देता है | उस क्षण विकलता का यह रोग समूची प्रकृति में समरूपता से व्याप्त हो गया | शेख ने प्रकृति की व्याकुलता और उदासी का भी मार्मिक चित्रण किया है |
यद्यपि इन मधुरोपासक भक्तकवियों ने रामकाव्य की रचना में सेवक-सेव्य भाव को ही सर्वोपरि रखा है  तथापि भरत का चरित्र यहाँ पूर्ण प्रकाशित नहीं हुआ है | परंतु सूरदास की कविताई ने इस कमी को झाँप लिया है | उन्होंने आवश्यकतानुसार रामप्रेम के मूर्तस्वरूप भरत-चरित्र का भी चित्रण किया है | इस चित्रण के माध्यम से भाई का भाई के प्रति उत्कट स्नेह अभिव्यक्त हो रहा है, द्रष्टव्य है –

“राम जू कहाँ गये री माता ?
सूनो भवन, सिंहासन सूनो, नाहीं दशरथ ताता |
धृग तव जन्म, जियन धृग तेरो, कही कपट मुख बाता |
सेवन राज, नाथ बन पठए, यह कब लिखौ विधाता |
मुख अरविंद देखि हम जीवत, ज्यों चकोर शशि राता |
सूरदास श्री रामचंद्र बिनु कहा अयोध्या नाता |” 10

आज समूची अयोध्या क्या महज एक आने के लिए लोग आपसी वैमनस्य और घृणा को बढ़ावा दे रहे हैं, परस्पर घात कर रहे हैं | धन और मान के समक्ष स्नेह-सूत्र  का कद निरंतर बौना होता जा रहा है | इंसान अपनी मानसिक त्रस्तता से न तो निजात पा रहे हैं और ना ही अपना मन अपनों के समक्ष खोल पा रहे हैं | समाज की इस दारुण परिस्थिति में रामकाव्य ही संजीवनी भी है और सद्गुरु सा पथ प्रदर्शक भी | यह आत्मीयता के उद्बोधन की पराकाष्ठा ही तो है कि रामद्रोह के मूर्तस्वरूप रावण के अंतःकरण में विचरण करती रामनिष्ठा को सूरदास11 और तुलसीदास ने उजागर कर एक प्रत्यक्ष राम वैरी की रामनिष्ठा को उजागर किया है | इस आशय से द्रष्टव्य है ‘रामचरितमानस (अरण्यकांड, दोहा 22)’ का निम्नोद्धृत अंश –

“सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
तौं मैं जाइ बैरु हठि करऊँ | प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ||2||
होइहि भजनु न तामस देहा | मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
जौ नररूप भूपसुत कोऊ | हरिहऊँ नारि जीति रन दोऊ ||3||”

संदर्भ सूची :

1.सिंह, शंभुनाथ. मीरा पदावली पृ. 30
2. चतुर्वेदी, आचार्य परशुराम.  मीराबाई की पदावली
3. बेगम, डॉ. नूरजहाँ.  कृष्णभक्त मुसलमान कवि पृ. 101
4. वही पृ. 88-89
5. उद्धृत हिंदी साहित्य का बृहत  इतिहास (पंचम भाग) पृ. 333
6. संकल्य,  (2010)  डॉ. विद्यारानी, वाग्गेयेकार महाकवि सूरदास, जुलाई-सितंबर, पृ. 32
7. सूरदास, (सं 2065), सूर-राम-चरितावली, गोरखपुर : गीता प्रेस, पद संख्या 2
8. भक्ति सुधास्वादतिलक, पृ. 546
9. बेगम, डॉ. नूरजहाँ.  कृष्णभक्त मुसलमान कवि पृ. 160
10.  सूरदास, (सं 2065), सूर-राम-चरितावली, गोरखपुर : गीता प्रेस, पद संख्या 38
11. वही, पद संख्या 129, 69

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