Tuesday, January 30, 2018

राम भक्तिकाव्य का अनछुआ मर्मस्थल : रावण चरित




राम भक्तिकाव्य का अनछुआ मर्मस्थल : रावण चरित

  
ऋषि पुलस्त्य और माता केकसी का पुत्र, शिव तांडव स्त्रोत का रचयिता, प्रकांड पंडित, परम शिव भक्त, प्रत्यक्ष रामद्रोह का मूर्त स्वरूप रावण जो अपने अभिमान, हठ, बाहुबल, अनैतिक कार्य, अत्याचार, शौर्य और पराक्रम के लिए पूरे ब्रह्मांड में कुविख्यात है | उसके दंभ और दुराग्रहों की कथा बाँचने अगर वह स्वयं भी बैठ जाए तो भी कुछ न कुछ छूट ही जाएगा | बालकांड में रावण के स्वभाव एवं कृत्यों की ओर संकेत करते हुए तुलसीदास कहते हैं कि जब रावण चलता था तो पृथ्वी भय से कांपने लगती थी तथा उसकी गर्जना सुनने मात्र से देव पत्नियों के गर्भ गिर जाते थे | पूरे विश्व को उसने अपने अधीन कर रखा था | अधीनस्थ समाज की सुंदर (मनुष्य, देव, किन्नर, यक्ष, गंधर्व और नाग) कुमारियों को वह बलात अपने वश में कर लेता था | उसके साम्राज्य में स्त्री के समान ही धर्म की स्थिति भी दयनीय हो गई थी | सारे धर्म कार्य उसकी आज्ञा से विध्वंस कर दिए जाते | जप-तप और यज्ञ में विघ्न डालने में वह स्वयं भी तत्पर रहता था | संसार मर्यादापतित हो गया था, धर्म परायणता नगण्य थी और दिनों-दिन आचार-विचार विनष्ट हो रहे थे | वेद-पुराण कहनेवालों को वह देश निकाला दे देता था | सामाजिक समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से उसका कोई सरोकार नहीं था | दंभ और मद में चूर हो वह भूल गया था कि “सामाजिक जीवन से सामरस्य, पर व्यक्तिगत जीवन में वरण का स्वातंत्र्य, यही पारमार्थिक विवेक का सही रूप है |”1 एक अधार्मिक के सारे गुणों का भार ढोते रावण का शब्दचित्र, तुलसीदास के शब्दों में, द्रष्टव्य है -
“चलत दशानन डोलती अवनी | गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी ||”2

“भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र |
     मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र ||
देव जच्छ गंधर्ब नर किन्नर नाग कुमारि |
जीति बरीं निज बाहु बल सुंदर बर नारि ||”3

“जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा ||
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ||
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना ||
              तेहि बहु विधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ||”4

अधर्म के मार्ग पर दौड़ते हुए इस अधार्मिक चरित्र की विशेषता है कि यह संशय नहीं करता साथ ही दूसरों के संशय न करने के लिए परिस्थिति भी उत्पन्न करता है | मंदोदरी के चिंतित मन और शंकित हृदय को शांत करने की चेष्टा करता रावण, उस क्षण केवल प्रेममूर्ति प्रतीत होता है, देखें –

“अस कहि बिहसि ताहि उर लाई | चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ||
मंदोदरी हृदयं कर चिंता | भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ||”5

अपनी प्रत्यक्षदर्शिता और आशावादिता के साथ वह अपना लक्ष्य निश्चित करता है, संकल्प लेता है और उसे पाने के लिए प्रक्रम आरंभ करता है | एक लक्ष्य उसने सीता हरण का ठाना और अपने छल-बल का प्रयोग करते हुए उसे पूरा किया | रावण द्वारा किया गया भार्या हरण का यह अनुचित कार्य क्या केवल शूर्पनखा के अपमान का प्रतिशोध भर था ? इस संदर्भ में रामचरितमानस में उल्लेख है कि खर-दूषण की मृत्यु से रावण सोच में पड़ जाता है | वह सोचता है कि वे दोनों तो मेरे समान ही बलवान थे, उन्हें भगवान के अलावा और कोई नहीं मार सकता है | यदि भगवान पृथ्वी का भार हरण करने के लिए अवतार ले चुके हैं तो मैं भी हठ करके उनसे शत्रुता करूंगा ताकि उनके बाणों के प्रहार से ही मेरे प्राण मेरे शरीर से निकले और मैं भवसागर पार कर पाऊं | अगर वे मनुष्य हैं, किसी राजा के पुत्र हैं तब मैं उन्हें युद्ध में हराकर उनकी नारी को  जीत लूँगा | वह भली-भांति जानता था कि तामस प्रवृत्ति वाले शरीर से भजन संभव नहीं है | इस आशय की पंक्तियाँ निम्नोक्त हैं, देखें -

“सुर नर असुर नाग खग माहीं | मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ||
खर दूषन मोहि सम बलवंता | तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ||
सुर रंजन भंजन महि भारा | जौ भगवंत लीन्ह अवतारा ||
तौ मैं बैरु हठ करऊँ | प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ||
होइहि भजनु न तामस देहा | मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ||
जौ नररूप भूपसुत कोऊ | हरिहऊँ नारि जीति रन दोऊ ||”6

यहाँ अंतःअनुभूतिवाद (INTUTIONISM) की झलक मिलती है जिसके अंतर्गत यह माना जाता है कि अंतःकरण प्रभुत्वसंपन्न होता है और इससे कभी भूल नहीं होती | इस मौलिक अंतःकरण की संपत्ति सार्वभौमिक है | यह अपनी-अपनी सबके पास होती है | रावण ने अपने अंतःकरण की आवाज सुनी और तदनुसार कार्य किया | यह जानते हुए कि उसके इस मत को बहुमत से अनुमोदन तो बहुत दूर की बात है संभवतः एक मत भी उसके खाते में न गिरे | सामान्यतः कोई क्या कहेगा यह सोचकर ही आंतरिक साहस को खो देने की प्रवृत्ति का आम जीवन में हमेशा प्रत्यक्ष होता है पर रावण इस आंतरिक  साहस को नहीं खोता है | उसका यह हरण कार्य जितना निंदनीय है, सकारात्मक कार्यों के संपादन हेतु उसकी यह आंतरिक दृढ़ता उतनी ही प्रशंसनीय और अनुकरणीय है |
रामचरितमानस की पूर्वोद्धृत पंक्तियों से यह तथ्य भी सामने आ रहा है कि रावण का आध्यात्मिक सत्ता में भी विश्वास था | अपने मन में उसने राम की कल्पना जगदाधार के रूप में की | एक परमतत्व पर संपूर्ण विश्व के आश्रित होने की कल्पना प्रायः वस्तुनिष्ठ प्रत्ययवाद के अंतर्गत किया जाता है | रामचरितमानस के लंकाकांड में रावण की मृत्यु न होने से व्याकुल सीता और त्रिजटा के मध्य हो रहे संवाद से यह तथ्य उभरता है कि रावण के हृदय में जानकी विराजमान हैं और जानकी के हृदय में श्रीराम इस तथ्य को स्वयं राम भी जानते हैं | राम जिनके उदर में अनेक संसार बसते हैं वह तो सीता के माध्यम से रावण के हृदयासन पर विराजमान है | इस स्थिति में अगर वे रावण के प्राणों का अंत करते हैं तो ‘रावण हृदयास्थित’ उनके उदर के माध्यम से सारा संसार काल का ग्रास बन जाएगा | इसीलिए वे बार-बार उसके सर और भुजाओं को काट रहे हैं ताकि व्याकुलता में उसका ध्यान सीता से हट कर अपनी रक्षा पर केंद्रित हो जाए | त्रिजटा सीता से कहती है कि उसका हृदयासन शून्य होते ही राम उसका वध कर देंगे | द्रष्टव्य है –

“एहि के हृदयं बस जानकी जानकी उर मम बास है |
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ||
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटा कहा |
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा ||
काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान |
तब रावनहि हृदय महु मरिहहिं रामु सुजान ||”7

रामकाव्य के प्रतिनायक रावण ने सहर्ष युद्ध का वरण किया, उसका शीश उच्चतर मूल्यों के प्रतीक राम के समक्ष भी नत नहीं हुआ | इस नत न होने का प्रत्यक्ष कारण द्रोह प्रतीत होता है परंतु इसके पीछे कुछ और है | रावण के हृदय में राम के प्रति प्रीति और उसकी परलौकिक समझ के अनुसार वैकुंठ में स्थान पाने की लालसा तिस पर तमोगुण प्रधान शरीर की सात्विक कर्म से विमुखता वाली विवशता | इस विवशता ने ही रावण को लोकोत्तर सामूहिक मुक्ति (सामूहिक मोक्ष) की भावना से सीता हरण के लिए प्रेरित किया | युद्ध में राम के हाथों कुल समेत प्राणांत से संपूर्ण कुल का उद्धार हुआ | इस तथ्य का उल्लेख रामचरितमानस में भी है | युद्धोपरांत जब युद्ध भूमि में आकाश से अमृत वर्षा हुई तो सिर्फ रामदल के लोग ही जीवित हुए प्रतिपक्ष से कोई भी पुनर्जीवित नहीं हुआ | कारण कि ‘रामाकार भए तिन्ह के मन छुटि गए भव बंधन’ | राम की शरण में जाकर भी रावण अपना कुल समेत उद्धार कर सकता था | परंतु उसने ऐसा नहीं किया | शिव प्रदत्त शीश को श्रीराम के चरणों में नत कैसे करता वह ! इस धर्म संकट से न उबर पाने की स्थिति में उसने युद्ध का वरण किया | युद्ध के वरण के हश्र से रावण अनभिज्ञ नहीं था | अपने समाज की पारलौकिक मुक्ति हेतु वह परिजनों के प्रत्यक्ष विनाशजन्य असहनीय पीड़ा को पीता रहा | यह है रावण की अलौकिक और अद्वितीय रामनिष्ठा जो प्रत्यक्षतः विनाश का तांडव प्रतीत होता है परंतु वास्तव में यह लोक मंगल का जयघोष ही है | एक तरफ संसार असुरों के आतंक से मुक्त हुआ दूसरी ओर असुर अपने तामसी शरीर से मुक्त होकर सद्गति को प्राप्त हुए | सूरसागर और रामचरितमानस में इस गूढ़ रहस्य को उद्घाटित करते हुए रावण की पूर्वोद्धृत ‘राम निष्ठा’ को उजागर किया गया है | सूरदास के रामचरित संबंधी सारे पद सूर-रामचरितावली में संकलित है | इसी कृति में मंदोदरी और रावण के परस्पर वार्तालाप के प्रसंग में रावण स्वयं अपने मुख से इस रहस्य में छिपे मार्मिक सत्य को उद्घाटित करते हुए मंदोदरी की ओर मुखातिब होकर कहता है –

“सुनि प्रिय तोहि कथा सुनाऊँ
यह परमोद बसत जिय मैं गति, कत बैकुंठ नसाऊँ ||
अधरम करतहिं गए जन्मसत, अब कैसे सिर नाऊँ |
वह परतीति पैज रघुपति की, सो कैसे वृथा गवाऊँ ||
जौ गुरजन सुनाम नहिं धरते, तौ किति सिंधु बहाऊँ |
मैं पायो सिव को निरमायल, सो कैसे चरन छुवाऊँ ||
जौ सनकादिक श्राप न देते, तौ न कनकपुर आऊँ |
जौ ‘सूरज’ प्रभु त्रिया न हरतौ, क्यौअब अभै पद पाऊँ ||”8 

  सच ही तो है कि सनकादि कुमार अगर उसे श्राप नहीं देते तो उसे इस कनकपुर में आना भी नहीं पड़ता | पूर्वोद्धृत पद में रावण ने नामकरण संस्कार की ओर भी इशारा किया है | वह कहता है कि अगर गुरुजन मेरा ऐसा नाम (रावण) नहीं रखते तो कदाचित मेरा आचरण भिन्न होता | रावण का अर्थ है विश्व को रुलानेवाला | नाम के अनुरूप ही गुण होता है, यह सर्वविदित है पर नाम भी जन्म राशि, नक्षत्र, लग्न, समय इत्यादि के आधार पर ही तय किए जाते हैं | सूर-राम –चरितावली  में ही रावण ने सीता की महिमा स्वीकार की तथा स्वयं को महापापी और राम को तारनहार बताते हुए यह घोषणा करता है कि ‘वह सीता-राम का सेवक’ है –

“जो सीता सत तैं बिचलै, तौ श्रीपति काहि संभारै |
मोसे मुग्ध महापापी कौं, कौन क्रोध करि तारै ||
ये जननी वे प्रभु रघुनंदन, हौं सेवक प्रतिहार |
सीता राम ‘सूर’ संगम बिनु, कौन उतारे पार ? ||”9

समाज की उन्नति और अवनति में प्रत्येक भागीदार होता है | सूक्ति है ‘श्रद्धावान लभते ज्ञानम’ अर्थात श्रद्धावान व्यक्ति ही ज्ञान पा सकता है | यह ज्ञान ही व्यक्ति को निष्ठावान बनाता है | व्यक्ति की स्व के प्रति निष्ठा यदि निजी अनुभव संसार के इर्द-गिर्द ही घूमती रहती है तो वह समाज के नाश का कारण होती है | रावण की निष्ठा इस संकीर्णताजन्य विनाश का प्रत्यक्ष उदाहरण भी है जो पूरी लंका के विनाश का कारण बना | सोने की लंका जल कर रख हो गई | समूचा समुदाय त्राहिमाम त्राहिमाम करने लगा | सेनापति के शब्दों में लंकादहन का चित्र, द्रष्टव्य है  –

“रह्यो तेल पी ज्यौ घिय हू कौं पूर भीज्यौ, ऐसौ
लपटयो समूह पट कोटिक पहल कौं |
बेग सौं भ्रमत नभ देखियै बरत पूँछ,
देखियै न राति जैबो महल-महल कौं ||
सेनापति बरनि बखानै मानौं धूमकेतु
उदयौ बिनासी दसकंधर के दल कौं |
सीता को संताप, कि खलीता उतपात कौं, कि
काल को पलीता, प्रलै-काल के अनल कौं || ”10

जो सोच विशाल विनाश का कारण बने उसे साधारणतः निष्ठा का नाम नहीं दिया जाता | परंतु रावण की विद्वत्ता ने उसके मन को पारलौकिक कल्याण में निमग्न कर रखा था | उसकी तामसी वृत्ति उसे सत्कार्य में प्रेरित नहीं कर सकती थी | अतः राम विमुख तन से मुक्ति की रावण की भावना ने उसे राम से वैर लेने की प्रेरणा दी | इसके परिणामस्वरूप रावण को अपनी आँखों के सामने अपने कुल और बंधु-बांधवों का विनाश देखना पड़ा | कोई प्राणी कितना भी दुराचारी क्यों न हो, वह स्वजनों की मृत्यु का कारण कभी नहीं बनना चाहता है | रावण इस असहनीय दुःख को स्वेच्छा से निमंत्रित करता है और भोगता भी है | रावण की व्यक्तिगत आत्मनिष्ठा से उत्पन्न लौकिक विनाश में वस्तुतः समूह का परलौकिक कल्याण (मोक्ष) निहित है | साधारणतया व्यक्तिगत निष्ठा लोकमंगल हेतु धर्म निर्वाह की प्रेरणा देती है | “आत्मनिष्ठा वह तत्व है जो व्यक्ति को अपने आराध्य के निकट पहुँचाती है |”11
रावण की शिव आराधना तो विख्यात है ही, भक्त कवियों ने उसके अंतःस्थित राममयता को भी अपने साहित्य में उद्घाटित कर दिया | सभी तो पंचभूतों की ही निर्मिति हैं परंतु तत्वों की मात्रा सबमें समान नहीं होती है | इसीलिए जिसमें जिस तत्व की प्रधानता होती है वह जीव उस प्रधान तत्व प्रेरित प्रवृत्ति का पोषक बन जाता है | “भारतीय संस्कृति का मूलमंत्र पुरुषार्थों का मंजुल संतुलन है और उस मंत्र का मूल वाच्य धर्म ही है, क्योंकि उसी से अर्थ, काम और मोक्ष या आत्म कल्याण की साधना की जाती है |”12
 तामसी शरीर में भी धर्म का बीज तत्व निहित रहता है तभी तो क्षण भर के लिए भी धर्म की ओर मन आकृष्ट होता है | पर उसे पाने का मार्ग तो जीव अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप ही चुनता है, जैसे रावण ने चुना | सूर-राम –चरितावली  में ही रावण मंदोदरी से कहता है –

“यह सीता निरभै कौ बोहित, सिंधु सुरूप बिषै कौ पानी ||
मोहि गवन सुरपुर कौं कीबे अपनैं काज कौं मैं हरि आनी ||
‘सूरदास’ स्वामी केवट बिन, क्यौ उतरे रावन अभिमानी ||”13

धर्म को विद्वानों ने आत्म कल्याण और सामुदायिक कल्याण के साथ जोड़कर देखा है | “धर्म उन्नत जीवन की एक महत्वपूर्ण और शाश्वत प्रक्रिया या आचरण-संहिता है जो समष्टि-रूप समाज के व्यष्टि-रूप मानव के आचरणों तथा कर्मों को सुव्यवस्थित कर रमणीय बनाता है तथा उसमें (मानव जीवन में) उत्तरोत्तर विकास लाता हुआ उसे मानवीय अस्तित्व के चरम लक्ष्य तक पहुँचाने के योग्य बनाता है |”14
 राम भक्तिकाव्य में वैयक्तिक आत्मनिष्ठा सामूहिक मुक्ति का आह्वान करती नजर आती है | शबरी, निषाद, हनुमान, सुग्रीव सबकी स्वनिष्ठा राम के प्रति निष्ठा में परिणत होकर लोकमंगल का साधन बन जाती है | राम सबको सहर्ष स्वीकारते हैं, समभाव से स्वीकारते हैं परंतु अपने अधीन कभी नहीं करते | रावण को भी अपने अधीन नहीं किया वह राम से शत्रुता करने के लिए स्वतंत्र था | जीवन की उसकी वह गुप्त अभिलाषा जिससे मंदोदरी भी अनभिज्ञ थी, मृत्योपरांत पूर्ण हुई | रावण ने राम को प्रकट रूप में वैर भाव से और अप्रकट रूप में स्नेह भाव से हर पल अपने चित्त में रखा | आज उसी के शव पर विलाप करती मंदोदरी कहती है, “आपने राम से सदा द्रोह ही किया |” सबके लिए यही सत्य रहा, प्रत्यक्ष जो था ! देखें –   

“जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं |
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं ||
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं |
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं ||
अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन |
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान ||” 15 

कैसा मार्मिक क्षण है !  अर्धांगिनी भी न झाँक सकी उसका अंतर्मन ! रावण छिपाने की कला में भी निष्णात था | कई बार उसने अपने दुःख, भय और शंका को अपनी घोर गर्जना वाली हंसी के पीछे छिपा लिया | समसामयिक रामकाव्य में रावण के चरित्र के उज्जवल पक्ष खुल कर खुल रहे हैं जिससे केंद्रीयता विखंडित हो रही है | नए विचारों का साहित्य-संसार में आगमन हो रहा है जो साहित्यिक जीवंतता की स्वाभाविक आवश्यकता है | रावण जो राम भक्तिकाव्य में हाशिए का भी हाशिया था, “अब रावण ‘परिधि’ को छोड़कर केंद्र में आ रहा है और राम संस्कृति ‘केंद्र’ छोड़कर ‘परिधि’ पर जा रही है |”16 इससे स्पष्ट  है कि विचार और विकास निरंतर गतिमान हैं | भक्तिकाल से उत्तर आधुनिकता की साहित्यिक यात्रा करते हुए राम का चरित्र साहित्य में देवत्व से मनुजत्व की ओर बढ़ता जा रहा है और रावण का चरित्र वैधता और अवैधता से परे होकर मीडिया सहित कहानियों और उपन्यासों में भी, साहित्यिक केंद्र बनता जा रहा है |

    
संदर्भ :
1.       मिश्र, डॉ. विद्यानिवास. (1987), तुलसी मंजरी, दिल्ली : प्रभात प्रकाशन, पृ. 27-28
2.       तुलसीदास, गोस्वामी. रामचरितमानस, गोरखपुर : गीता प्रेस ( दोहा 1-181-3)
3.       वही, ( दोहा 1-182- क,ख)
4.       वही, (दोहा 182 का छंद)
5.       वही, ( दोहा 5/36/1)
6.       वही, ( दोहा 3/22/1-3)
7.       वही, (दोहा 6/दोहा 98 का छंद और 99 का छंद)
8.       सूरदास, (सं० 2065), सूर-राम-चरितावली, गोरखपुर, गीता प्रेस, पद संख्या 129
9.       वही, पद संख्या 69
10.    सेनापति, कवित्त रत्नाकर – 4/38, उद्धृत (2016), राम भक्तिकाव्य में लोकपक्ष, पटना : अंजान प्रकाशन, पृ.162
11.    डॉ. मोहन, (1990), सगुण भक्तिकाव्य में लोकपक्ष, वाराणसी : संजय बुक सेंटर, पृ. 38
12.    तिलक,बाल गंगाधर. (तीसरा प्रकरण) गीता रहस्य, पृ. 67
13.     सूरदास, (सं० 2065), सूर-राम-चरितावली, गोरखपुर, गीता प्रेस, पद संख्या 130
14.    धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, द्वितीय खंड, अध्याय 1, उद्धृत शर्मा, आचार्य देवेंद्रनाथ. कुमार, डॉ. वचनदेव. (1981), तुलसी साहित्य विवेचन और मूल्यांकन, दिल्ली, नेशनल पब्लिशिंग हाउस,पृ 56.
15.    तुलसीदास, गोस्वामी. रामचरितमानस, गोरखपुर, गीता प्रेस (6/ दोहा 103 का छंद, दोहा 104)
16.    पालीवाल, डॉ.कृष्णदत्त. 18-01-2005, उत्तर आधुनिकता के स्त्रीवादी विमर्श का जादू, हिंदुस्तान,


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