Tuesday, January 30, 2018

उच्चतर प्रेम का विज्ञान है भक्तियोग

उच्चतर प्रेम का विज्ञान है भक्तियोग


एक आध्यात्मिक विभूति जिनके दिव्य ज्ञान की आभा से भारत भूमि सहित सारी वसुधा आलोकित हो रही है, उन्ही स्वामी विवेकानंद की एक कृति है – “भक्तियोग” | इसके पारायण से मानव समाज कई जटिल पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सकता है | आधुनिकता के मोह-पाश  में फँसे विह्वल सामाजिक प्राणी जो अपने अंतर्मन की शांति हेतु कई प्रयत्न करते हैं | अपने प्रयत्नों के जरिए वे स्वयं के लिए सुख-शांति तलाशते हैं, सच्चे सुख से अनभिज्ञ रहते हुए | उनकी यह दिशाहीन तलाश उनके कीमती वक्त के साथ-ही-साथ उनके उस धन को भी क्षत-विक्षत कर देती है जिसका उपयोग वे बेसहारा और लाचार लोगों के जीवन को सँवारने हेतु कर सकते थे | पर यह ख्याल हममें से कितनों के जेहन में आता है ? जहाँ यह ख्याल होगा, जहाँ इस ओर प्रयत्न होगा – वहाँ अशांति की क्या बिसात ! अचंभा तो तब होता है  जब विराट के प्रतीक की उपासना में लीन मनुष्य सहजता से उसके जीव रूपी साक्षात् स्वरूप की अवहेलना कर बैठता है , इतना ही नहीं वरन अपने से भिन्न पद्धति के उपासकों के प्रति भी असहिष्णु हो जाता है | सच्चे धर्मानुयाई ऐसे तो नहीं होते ! समीक्ष्य कृति में  भक्ति के भिन्न-भिन्न साधनों की पारदर्शी व्याख्या उपलब्ध है | इस व्याख्या का आधार ग्रंथ-ज्ञान के साथ ही स्वामी विवेकानंद की आत्मानुभूति भी है | इस आत्मानुभूति के लेखन का उद्देश्य सर्वानुभूति से जुड़ा हुआ है |   
विराट शक्ति का अस्तित्व स्वीकार करना शोभनीय है | इसे सभी स्वीकार करते हैं | अपनी कृति “भक्तियोग” के माध्यम से “स्वामी विवेकानंद” धर्म के नाम पर पनपती अंधता को मूल समेत उखाड़ फेंकना चाहते हैं | ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति मानव धर्मांधता के कुचक्र में फँसकर अपने अनमोल जीवन को व्यर्थ न कर दे इसलिए स्वामी विवेकानंद अपनी कृति के जरिए अपने बंधुओं की ज्ञान-चक्षु को खोलना चाहते हैं | अतिरेकों की भांति ही अंधेपन में भी विनाश का बीज छिपा है जिसका प्रत्यक्ष साक्ष्य कुरुक्षेत्र का नरसंहार है | मानव चाहे मतांध हो, कामांध हो, धर्मांध हो या किसी अन्य मूढ़ अंधता से ग्रसित हो – मानव की यह अंधता किसी भी दृष्टिकोण से कभी भी सराहनीय नहीं है | ध्यान देने योग्य तथ्य है कि “ वही मनुष्य, जो धर्म और ईश्वर संबंधी अपने आदर्श में इतना अनुरक्त है, किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उस संबंध में कोई बात सुनते ही इतना खूँख्वार क्यों हो उठता है | इस प्रकार का प्रेम कुछ-कुछ दूसरों के हाथ से अपने स्वामी की संपत्ति की रक्षा करनेवाले एक कुत्ते की सहज प्रवृत्ति के समान है | पर हाँ, कुत्ते की वह सहज प्रेरणा मनुष्य की युक्ति से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह कुत्ता कम-से-कम अपने स्वामी को शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता – चाहे उसका किसी भी वेश में उसके सामने क्यों न आये |” (स्वामी विवेकानंद, भक्तियोग, पृ. 4)| मानव अपनी विचार शक्ति के कारण ही पशुओं से श्रेष्ठ है पर न जाने क्यों वह आतुरता से विचारहीन कर्मों को अंजाम दे रहा है | मूर्तिपूजा और धार्मिक अनुष्ठानों की लोकप्रियता सर्वविदित है, इस तथ्य को जानते हुए समीक्ष्य कृति में आध्यात्मिक अनुभूति पर विशेष बल दिया गया है | स्वामी विवेकानंद इसे ही प्रत्यक्षानुभूति मानते हैं | यह प्रत्यक्षानुभूति समस्त तर्क-वितर्क एवं संशयों से परे होती है | मानव जीवन में इस अभीष्ट की प्राप्ति हेतु सहज, सरल, निष्पाप आत्मा ही तत्पर हो सकती है | ऐकांतिक साधना के साथ-ही समस्त ब्रह्मांड के लिए  अपने हृदय में अपनत्व संजोने वाला व्यक्ति ही प्रत्यक्षानुभूति का सुयोग्य पात्र हो सकता है | सच्चे गुरु के साथ के अभाव में साधक की सफलता संदेहास्पद अवश्य प्रतीत होती है परंतु यहाँ एक सरलता है – वह यह कि साधक “विराट शक्ति" को ही अपना गुरु मान सकता है | साधक की असीम श्रद्धा के वशीभूत होकर वह विराट शक्ति निःसंदेह उन्हें अपना शिष्यत्व प्रदान करेगी ही | एकलव्य ने भी धनुर्विद्या की प्राप्ति हेतु गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति को अपना गुरु मान कर अभ्यास किया और सफल धनुर्धर बने | यह भी ध्यान रहना चाहिए कि सिर्फ गुरु का वेश धारण कर कोई गुरु के उत्तरदायित्व की पूर्ति नही कर सकता है और न ही शिष्य होने का दंभ भरने से कोई योग्य शिष्य हो जाता है | स्वामी विवेकानंद कहते हैं , “संसार तो ऐसे लोगों से भरा पड़ा है | हर एक आदमी गुरु होना चाहता है | भिखारी भी चाहता है कि वह लाखों का दान कर डाले | जैसे हास्यास्पद ये भिखारी हैं, वैसे ही ये गुरु भी !”(वही, पृ. 24) | आध्यात्मिकता के बीज को अंकुरित कर सकने वाली जमीन और उसके अनुकूल आवोहवा के निर्माण का कार्य इन व्यावसायिक बुद्धि वालों के बूते से कोसों दूर है | समीक्ष्य कृति में स्पष्ट किया गया है कि ऐसे प्राणी अपनी भेद-बुद्धि के साथ वास्तविक धर्म से लगातार दूरी साधे रहते हैं और व्यर्थ ही मंत्रों एवं अवतारों की अवहेलना करने से बाज नही आते | अवतार की मनोवैज्ञानिक सत्यता को स्पष्ट करते हुए लेखक के उद्गार हैं,”मान लो, भैंसों की इच्छा हुई कि भगवान की उपासना करें – तो वे अपने स्वभाव के अनुसार भगवान को एक बड़े भैंसे के रूप में देखेंगे | यदि एक मछली भगवान की उपासना करना चाहे , तो उसे भगवान को एक बड़ी मछली के रूप में सोचना होगा | इसी प्रकार मनुष्य भी भगवान को मनुष्य-रूप में ही देखता है | यह न सोचना कि ये सब विभिन्न धारणाएँ केवल विकृत कल्पनाओं से उत्पन्न हुई हैं | मनुष्य, भैंसा, मछली – ये सब मानो भिन्न-भिन्न बर्तन हैं; ये सब बर्तन अपनी अपनी आकृति और जल धारण-शक्ति के अनुसार ईश्वर रूपी समुद्र के पास अपने को भरने के लिए जाते हैं |” (वही, पृ. 34) |
जिस प्रकार ‘ॐ’ शब्द से ‘विराट शक्ति’ का पूर्ण स्वरूप परिलक्षित होता है उसी प्रकार ईश्वर के वास्तविक स्वरूप (मनुष्य से उच्चतर) की प्रत्यक्षानुभूति हेतु प्राणी को मनुष्य की भावभूमि से ऊपर उठना होगा , श्रीरामकृष्ण की भांति परमहंस बनना होगा | भक्तियोग सभी तरह के ढकोसलों को परे हटाता है | उच्चतम सिद्धावस्था की प्राप्ति हेतु व्यर्थ के पाखंड और कर्मकांड को बढ़ावा देने की तनिक भी आवश्यकता नही है | पराभक्ति की प्राप्ति हेतु गौण भक्ति के साधन रूप में ही धार्मिक अनुष्ठान , प्रतीक-प्रतिमा उपासना , खाद्याखाद्य विचार जैसे बाह्य क्रियाकलाप आवश्यक लगते हैं | ये क्रियाएँ मानव की आंतरिक शुद्धि में सहायक मात्र हैं , इन्हें धर्म का सार भाग नही कहा जा सकता | अविकारी अंतर्मन में ही प्रेमस्वरूप विराट का निवास संभव है | सत्य, त्याग, अहिंसा और दया का भाव ग्रहण करने वाला मनुष्य ही समस्त संसार से प्रेम करने वाला हो सकता है , फिर उसका भोजन कुछ भी हो उसे पतित नही कहा जा सकता ! “...जो थोड़े-से धन के लिए जघन्य से जघन्य कृत्य करने में भी नही हिचकता , वह तो पशु से भी गया – बीता है – फिर चाहे वह घास खाकर ही क्यों न रहता हो | जिसके हृदय में कभी भी किसी के प्रति अनिष्ट विचार तक नही आता , जो अपने बड़े से बड़े शत्रु की भी उन्नति पर आनंद मनाता है वही वास्तव में भक्त है, वही योगी है और वह सबका गुरु है – फिर भले ही वह प्रतिदिन शूकर मांस ही क्यों न खाता हो !” ( वही, पृ. 52) |
आध्यात्मिक अनुभूति जनित अनुराग हृदय की समस्त राग-रागिनियों को विराटोन्मुख कर देता है जिससे सृष्टि के कण-कण में विराट का ही दर्शन होने लगता है , फिर भला प्रेम कैसे न हो ! यही प्रेम विशुद्ध धर्म है | इस प्रेम के कई रूप हैं , जैसे – शांति, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर, परकीया इत्यादी – अपने  हर रूप में यह हमें भयभक्ति के कुसंस्कार से मुक्त करता है | यहाँ प्रेमी भक्त प्रतिदान की आशा से परे होता है वह सिर्फ प्रेम के लिए प्रेम करता है | ऐसे प्रेमोंन्मत्त भक्त जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में कभी भी अपने प्रेमास्पद पर आरोप नही लगातेहैं | उन्हें सहज ही सब स्वीकार्य होता है | “ ऐसे भक्तों को यदि साँप भी काट ले , तो वे कहते हैं, ’मेरे प्रियतम का एक दूत आया था | ऐसे ही पुरुषों को विश्वबंधुत्व की बात करने का अधिकार है |”(वही, पृ.63) |
उच्चतर मानवीय गुणों से संपन्न मनुष्य ही स्वार्थपरता का त्याग कर विश्व बंधुत्व की भावना को बढ़ावा दे सकता है कारण कि आत्मा में स्थित परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति से उसकी देहात्म बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह प्रेम की दिव्यता से भर जाता है | यही उच्चतर प्रेम का विज्ञान वस्तुतः भक्तियोग है जिसमें संपूर्ण चराचर जगत ‘विराटमय’ दिखता है | इस पूर्णता को प्राप्त हुए भक्त की दशा स्वामी विवेकानंद के शब्दों में ,”तब वह पूर्णताप्राप्त भक्त अपने भगवान को मंदिरों और गिरजों में खोजने नहीं जाता ; उसके लिए तो ऐसा कोई स्थान ही नही, जहाँ वे न हों | वह उन्हें मंदिर के भीतर और बाहर सर्वत्र देखता है | साधु की साधुता में और दुष्ट की दुष्टता में भी वह उनके दर्शन करता है; .....वह जानता है कि वे एक सर्वशक्तिमान एवं अनिर्वाण प्रेमज्योति के रूप में उसके हृदय में नित्य दीप्तिमान हैं और सदा से वर्तमान हैं| ”( वही, पृ.85) | समीक्ष्य कृति ‘भक्तियोग’ स्वामी विवेकानंद की मूल अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद है | इस कृति में भावों की प्रस्तुति मूल कृति सी ही है | ईश्वरीय शक्ति और मानव जीवन को भक्ति के माध्यम से जोड़ने वाली यह कृति भक्ति के साधनों से अवगत कराने के क्रम में जीवंत सत्यों से भी साक्षात्कार कराती चलती है |   
समीक्षित कृति : भक्तियोग
लेखक : स्वामी विवेकानंद
अनुवादक : डॉ. विद्याभास्कर शुक्ल
संस्करण : द्वितीय , 1947
प्रकाशक : स्वामी ब्रह्मस्थानंद, रामकृष्ण मठ, धंतोली, नागपुर – 440012             
मूल्य : 15 रुपये



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