(तिनका तिनके पास के विशेष संदर्भ में)
देह व्यापार एक ऐसा अनैतिक व्यापार है जिसमें निरंतर ग्राहकों की
रेलमपेल के कारण व्यापार का आप्त वाक्य ‘ग्राहक सर्वोपरि’ निरर्थक लगता है ! इसमें
माल की माँग और उसकी उपलब्धता सापेक्ष बढ़ती रहती है तिस पर विडंबना यह है कि इसका
व्यवस्थापक जो इस माल की मेहनताना का बड़ा हिस्सा हड़पता है, उसकी पहचान और
यौनकर्मियों के ग्राहकों की सूची (नाम-पते) अनुपलब्ध रहती है | बीच की कड़ी है दलाल
जो संपर्क सूत्र एवं गार्ड की भूमिका अदा करता है | देह व्यापार के केंद्र में है
‘विवश उत्पीड़ित सनातन स्त्री’ जिन्हें प्राचीन भारत में ‘गणिका’ कहा जाता था |
‘तिनका तिनके पास’ उपन्यास में इन्हें ‘कॉल गर्ल/वेश्या’ कहा गया है | इसका पर्याय
है अंग्रेजी का ‘prostitute’ जो लैटिन के ‘prostibula’ से बना है | उपन्यास की
केंद्रीय पात्र तारा ने लेक्चरर के रूप में कार्य करते हुए पढ़ा,”वेश्यावृत्ति भी
एक तरह का पागलपन है ...बड़े गले का ब्लाऊज या छोटा स्कर्ट पहनना आज भी समस्या है,
लोग पहनने वालियों को वेश्या कहते हैं | तो ‘वेश्या’ होना आज भी बुड़ा माना जाता है
|”1 वेश्यावृत्ति निवारण कानून 1956 में उल्लेख है, “किसी महिला द्वारा
किराया लेकर, चाहे वह पैसे के रूप में लिया गया हो या मूल्यवान वस्तु के रूप में
और चाहे फ़ौरन वसूला गया हो या किसी अवधि के बाद, स्वच्छंद यौन-संबंध के लिए किसी
पुरुष को अपना शरीर सौंपना ‘वेश्यावृत्ति’ है और ऐसा करनेवाली महिला को ‘वेश्या’
कहा जाएगा |”2 सोचने को बाध्य करती है यह परिभाषा कि क्या स्त्रियाँ ऐसा
करना चाहती हैं अथवा येनकेन प्रकारेण उनसे ऐसा करवाया जाता है ? अगर स्त्रियाँ
स्वतः उपलब्ध हो रही हैं इस घृणित कार्य के लिए तो फिर मानव तस्करों को तस्करी का
अवैध तरीका क्यों ईजाद करना पड़ रहा है ? स्त्रियाँ अगर देह व्यापार करने की इच्छुक
हैं तो सारी स्त्रियाँ इसे क्यों नहीं अपनाती ? क्यों गृहस्थिन की भूमिका में रहती
हुई स्त्रियाँ इस शब्द से भी भय खाती हैं ? जबकि इस कुचक्र में फंसी भूमंडलीकरण के
दौर की स्त्री सामान्य कर्मी की भांति स्वयं को एक यौनकर्मी बताती है, प्रस्तुत है
प्रभा खेतान से उसकी बातचीत का एक अंश :
“पहले परिचय में ही उसने कहा – मैं एक यौनकर्मी हूँ |...हो सकता है
अगले दो-तीन सालों में मैं अपना पेशा बदल लूँ या फिर इस काम से रिटायर होना चाहूँ
|
मगर तुमने यह काम चुना क्यों ?
अपनी इच्छा से, ज्यादा धन कमाने, मेरे अच्छे ग्राहक हैं | वे मेरी
कीमत अच्छी आंकते हैं | भला आते हुए धन को मैं क्यों छोड़ने लगी | ...तुम शादी भी
धन के लिए करती हो |...मुझे धन चाहिए बहुत अधिक ताकि मैं चैन से बुढ़ापा काट सकूँ
|”3
रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखो गोय |/सुनि
अठिलैहें लोग सब बाँटी न लैहें कोय || की तर्ज पर अर्थोपार्जन
के इस तरीके का इतना सबल समर्थन यह तो साबित करता है स्त्री व्यर्थ ही अपनी विवशता
का रोना नही रोना चाहती | वह सचमुच सबल है और देह विमर्श से सर्वथा मुक्त भी ! वह
इस काम को एक सामान्य काम की भांति करती है | क्या अर्थोपार्जन के सारे उद्योगों
को छोड़ स्त्री स्वेच्छा से अपनी आत्मा को कलपाने वाला यह रोजगार चुनती है ? क्या उसके भीतर बसी मानुषी को ऐसे ही जीवन की
तलाश थी ? क्या उसे प्रेम और सम्मान नहीं चाहिए ?
अनामिका की कविता ‘चकलाघर की एक दुपहरिया’ की पंक्तियाँ देखें, ”जिंदगी, इतनी सहजता से जो
हो / जाती है विवस्त्र / क्या केवल मेरी हो सकती है ?’ उसने कहा और चला गया ! / एक
कुंकुम रंग की क्रूरता / पसरी थी अब घर में !” यह पितृसत्ता के नैतिक साहस की सीमा
है जिसे वे नहीं लाँघते |
एक तो देह और मन के घटक में तोड़कर स्त्री को देखने और निरंतर उनके मन को रौंदने की कला में सिद्धहस्त
लोगों का जमावड़ा तिस पर भूमंडलीकरण के अंतर्गत वस्तुकरण की प्रवृत्ति – ये
स्थितियां देह व्यापार के लिए सोने में सुगंध सी हो जाती हैं | क्षेत्रीय, राष्ट्रीय
व अंतर्राष्ट्रीय स्तर की कई सफेदपोश सेवाएँ भी बहुधा अप्रत्यक्ष रूप से देह
व्यापार का मार्ग प्रशस्त करता है | हालाँकि इस स्थिति से निबटने के लिए राष्ट्रीय
व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कानून भी हैं | भारतीय अनैतिक व्यापार अधिनियम 1956 की
धारा 3(1),(2) के अंतर्गत देह व्यापारगैर क़ानूनी है | इसे करवाने वाले को अपराध
सिद्ध होने पर जुर्माने के साथ 2-5 वर्ष की सश्रम सजा का प्रावधान है | धारा 4
(1),(2) के तहत ऐसी कमाई पर जीवन जीने वाले एवं उनके साथ रहने वाले को भी सजा
मिलती है | धारा 5(1), 7(1), 7(1ए) और 7(2) के तहत भी अपराधी के लिए सजा का
प्रावधान किया गया है | इस कानून में कुछ कमियां पाइ गई जिसे दूर करने के लिए पहली
बार सन 1978 में और दुबारा विस्तृत रूप से सन 1986 में सुधार किया गया जिसमें
‘पुरुषों का यौन शोषण’ शब्द भी जुड़ गया | ये सुधार भी अपूर्ण साबित हुए इसलिए अब
एक नया बिल लाए जाने की केंद्र सरकार की योजना है जिसके तहत बच्चे की परिभाषा 16
वर्ष से बढ़ाकर 18 वर्ष कर दी जाएगी साथ ही चकलाघर चलानेवालों एवं उसमें सहयोग
करनेवालों के लिए सजा भी बढ़ाई जाएगी |
“ ‘पीच’ संस्था अपनी क्लाएंट्स की एच.आइ.वी जाँच करके ही उन्हें
फॉरवर्ड करती है ...इसका भी जिम्मा लेती है कि कोई नहीं हो !”4 क़ानूनी दांव-पेच
और पुलिसिया लफड़ा का तोड़ निकालने की पूरी गुंजाइश यहाँ मौजूद है |आधुनिकता के शिखर
को छूने वाला आदमी आज भी अपनी मानसिकता में ही पिछड़ा हुआ है !
एक स्त्री हमेशा सच्चा मित्र चाहती है पर
उसकी आँचल में बंध जाते हैं देह लोलुप प्रेमी | ये व्यक्ति भी सिर्फ देह लोलुप
नहीं होते | ये लोग स्त्री जीवन के विविध पक्षों का आदर अवश्य करते हैं परंतु अपनी
विकृत मानसिकता पर इनका वश नहीं चल पाता |
ऐसे लोग समाज के किसी भी वर्ग या श्रेणी के हो सकते हैं, रक्त संबंधी भी हो
सकते हैं या कार्यस्थल के कथित साथी या कोई अपरिचित | वस्तुतः एक स्त्री के लिए
पुरुष मित्र ही दुर्लभ है | “सर्वतोमुखी प्रेम का दावा ठोंकने वाले देह-लोलुप
प्रेमी तो ‘तीन बुलावै तेरह आवै’ की तरह थोक में राह-चलते मिल जाते हैं मगर
देह-निरपेक्ष कोई सच्चा दोस्त नहीं मिलता किसी अकेली स्त्री को !”5
यह स्थिति आज अचानक उत्पन्न नहीं हुई है | इसके बीज संस्कृति में ही
हैं | ब्रह्मा की सृष्टि में रंभा, मेनका और उर्वशी का होना, प्राचीन नगरों में
नगरवधू की उपस्थिति इसका साक्ष्य हैं | यह अलग बात है कि तब आम्रपाली को बुद्ध मिल
गए थे और आज स्थिति की भयावहता नियंत्रण से बाहर है | जाने-अनजाने चाहे-अनचाहे जो
स्त्रियाँ इसका शिकार हो रहीं हैं वे व्यथित हैं
साथ ही वे भी व्यथित हैं जो घर के दायरे में मुस्काती हैं, सुरक्षित हैं |
भला वे क्यों व्यथित हैं ? वे पति, पुत्र, भाई, पिता और मित्र रूपी पुरुष के भटकाव
से भयभीत हैं, व्यथित भी पर चुप ! चुप्पी न तो समस्या का समाधान है न ही स्त्री का
परंपरागत आदर्श | यह भ्रम है जिसे टूटना चाहिए अन्यथा विद्यापति की सांत्वना से ही
काम चलाना पड़ेगा | “... भ्रमर अकेला है और कुसुम बहुत हैं | उसका कौन दोष है ?
जातकी, केतकी और नवीना पद्मिनी सबमें उसका समान अनुराग है | उस अवसर पर भी वह
तुम्हें नहीं भूलता है, यही तुम्हारा बड़ा भाग्य है, भौंरा एक ही फूल में नहीं रमण
करता है और स्वामी एक ही स्त्री के साथ नहीं रहता है |”6
समयानुसार संस्कृति और परंपरा का परिष्करण एक स्वस्थ और जागरूक समाज
के लिए नितांत आवश्यक है | सामाजिक और सांस्कृतिक के साथ ही साथ देह व्यापार की
आर्थिक पृष्ठभूमि भी है | पूँजी के स्तर पर नवपश्चिमीकरण की उदार अर्थव्यवस्था के
तहत समाज में तीन वर्ग हैं – निम्न वर्ग (श्रमिक), मध्यम वर्ग (नौकरीपेशा वाले) और
उच्च वर्ग (धनाढ्य पूंजीपति) | इनमें देह व्यापार के अंतर्गत सर्वाधिक शोषण निम्न
वर्ग का ही होता है | अपनी सर्वाधिक आर्धिक परेशानी के कारण येन केन प्रकारेण ये
देह व्यापार के दलदल में फंस ही जाते हैं | संपूर्ण विश्व में मानव तस्करी का जो
जाल फैला हुआ है निर्धन महिलाएं ही उसका अधिकतर शिकार होतीं हैं | आर्थिक स्तर से
निम्न समुदाय विवशता में जिस आय के विकल्प को स्वीकारते हैं, मध्यम आर्थिक स्थिति
वाले अप्रत्यक्ष रूप से उस व्यापार की मजबूत कड़ी बन जाते हैं,उच्च स्थिति में आने
के लिए | कुछ इसी तरह का शुतुरमुर्गी व्यवहार धनाढ्य पूंजीपति भी करते हैं |
सामान्य जनता जो इस कुचक्र के चक्कर में अभी नहीं पड़ी है वह भलमानुष की भांति अपना
मुँह सीकर रहती है | बहुधा व्यक्तिगत संपर्क कायम करने और व्यापारिक समझौतों की
निर्बाध उन्नति के लिए उपहार स्वरूप भी यौनकर्मियों का उपयोग किया जाता है |
यानि निर्धनता और विवशता की
चादर में लिपटी स्त्री का समाज में चौतरफा शोषण होता है | अपना उल्लू सीधा करने के
लिए कोई भी अकेले (सबल-निर्बल, स्त्री-पुरुष) या अपने समुदाय के साथ इनका दैहिक,
आर्थिक और मानसिक शोषण करता है | हाल में ही एक खबर सामने आई, “तीसरी बार छात्रा
को एक वृद्ध के हाथों बेचा गया | छात्रा के विरोध करने पर वृद्ध के भाई से उसकी
शादी करा दी गई | बरामद छात्रा की माँ का आरोप है कि प्रिया उर्फ़ रिजवाना क्षेत्र
की लडकियों को बेच देह व्यापार के धंधे में लगाने का काम करती है |...जेल भेज दिया
|”7 ऐसे खबर अखबारों और न्यूज़ चैनलों में छाए ही रहते हैं | ‘तिनका तिनके पास’ उपन्यास की केंद्रीय पात्र
तारा और उसकी माँ इस आर्थिक दुश्चक्र का शिकार रही | शिक्षा, धन और पारिवारिक
परिवेश के अभाव में तारा की माँ ने अपना और अपनी बेटी का पेट पालने तथा उसे सही
परवरिश देने के लिए उसी धंधे को को जीवन का पर्याय बना लिया जिसमें वे कभी जबरन
ढकेली गई थी | परिस्थितियों की शिकार अपनी माँ के लिए तारा का व्यवस्था के प्रति
आक्रोश है कि जब माँ इन दुश्चक्रों से निकलने का प्रयत्न कर रही थी उस समय इस सभ्य
समाज का कोई भी भला मानुष साथ देने क्यों नहीं आया ? स्वयं तारा जो पेशेवर कॉल
गर्ल बनी उसके पीछे भी आर्थिक स्थितियाँ ही थी | “कितनी अजीब बात है कि ससुराल से
जब सीता निकाली गई तो नैहर से भी कोई लिवाने न आया ! ऐसा भी क्या विदेह हो जाना,
बाबा ! ऐसे समाज से तो जंगल भला |...तो आज हमारी जिंदगी का नक्शा कितना अलग होता
!”8
इस आर्थिक स्थिति की विडंबना की पराकाष्ठा तो तब प्रत्यक्ष होती है जब
अपनी असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए अभिभावक स्वयं अपनी बच्ची को या इस दलदल में
धकेल देते हैं जैसा कि उपन्यास की नन्ही ठुमरी का
बेबुनियाद शक के आधार पर अपने पिता द्वारा बेचा जाना | अन्य की क्या कहें
जब स्त्री भी स्त्री को नहीं समझ रही है !
ढेलाबाई शिवालय में अकेले रह रहे महेंदर मिसिर की सेवा तब तक करती रही
जब तक उनकी पत्नी उन्हें ले नहीं गई | इस सेवा के प्रतिदानस्वरूप ढेलाबाई को क्या
मिला ? उनकी पत्नी ने “जाते-जाते एक बार पलटकर ढेलाबाई को ऐसी निगाहों से देखा
जैसी आँखों से देवदत्त ने अपना आहत हंस उठाते हुए सिद्धार्थ को देखा था !”9
इसी उपन्यास में एक ‘पीच संस्था’ का जिक्र
है जो देह व्यापार का गढ़ है | इस संस्था के सहयोगी और भी हैं पर इसकी मुख्य
संचालिका एक स्त्री है | माने स्त्री भी स्त्रीत्व की कब्र खोद रही है , मातृत्व
का मजाक उड़ा रही है और सतीत्व को नष्ट करने में सबल सहयोग कर रही है ! संभव है कभी
वह भी इस दुश्चक्र में फंसी हो और अब उसके भीतर की स्त्री शायद मर गई है जो वह
यहाँ सहयोग दे रही है या केवल धनाकर्षण ही उसे बहनापा को नष्ट करने की प्रेरणा दे
रहा है |
देह व्यापार जैसे घृणित व्यापार में स्त्रियों को न सिर्फ ढकेला जाता
है बल्कि वहां टिके रहने के लिए बाध्य भी किया जाता है | कैसा कटु सत्य है इसका कि
जीवंत-ज्ञान-बुद्धि संपन्न विक्रय सामग्री की अनिच्छा जानते हुए भी बलपूर्वक उसे
बेचा जाता है और क्रेता अपनी अमानुषिक वृत्ति का परिचय देते हुए ऊँचे दामों पर उसे लपककर खरीदता है | किसी भी
व्यापार की सामान्य सी सच्चाई है – क्रेता वर्ग की संतुष्टि एवं उसकी सक्रिय और
सक्षम भागीदारी | जाहिर सी बात है कि क्रेता वर्ग अगर बाजार की किसी सामग्री को
नकार दे तो व्यापारी उसका व्यापार नहीं कर पाएगा | पर इस व्यापार में सामग्री की
माँग कभी घटती ही नहीं, शायद माँग की नित बढ़त की आपूर्ति हेतु रोज नई आपराधिक
घटनाओं से अख़बार पटे रहते हैं | किसी की आत्मा का गला घोंटकर अपने घर का चूल्हा
जलाने वाली सोच को धिक्कार है | माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका, दोस्त,
मार्गदर्शक और खुद को भूलकर न जाने कौन-कौन सी भूमिका निभाती हैं स्त्रियाँ सबके
जीवन में ! मानव जीवन में अमृत का संचार करनेवाली इस नारी को भोग- वस्तु समझने
वाली मानसिकता पूरे समाज के लिए घातक है | इस मानसिक सरांध को दूर करने की एक
कोशिश ‘तिनका तिनके पास’ उपन्यास में है |
‘जब सनातन स्त्रियाँ ही दोयम दर्जे में रखी जाएं तो फिर तारा जैसी स्त्रियों का
क्या !’ – कॉल गर्ल तारा के माध्यम से यह उपन्यास ऐसी सोच को दरकिनार करता है | तारा
स्वयं को एक सनातन स्त्री मानती है | वह उन वेश्यागामी पुरुषों पर आक्रोशित होती
है जो स्त्री को उसकी औकात याद दिलाते हैं और पूर्ण मनुष्य की जगह महज एक यौनकर्मी
मानते हैं | सचमुच वह वेश्यागामी अपनी ओर क्यों नहीं देखता जिसकी वासना की अग्नि
में एक स्त्री की इच्छा, आशा, भावना, आत्मा सब होम हो गए | एक स्नेहमूर्ति के स्नेह तत्व का हनन करनेवाले की
अपनी औकात क्या हो सकती है ? बात औकात की नहीं बात है मानव जाति के अस्तित्व और
अस्मिता की जिसके लिए यह व्यापार अत्यंत घातक है
| अतः न सिर्फ इसका वरन इसकी सहायक सभी वृत्तियों का अंत होना नितांत
आवश्यक है अन्यथा मनुष्यता विनष्ट हो जाएगी |
यौनकर्मी स्त्री को देह-व्यापार के दलदल से निजात दिलाकर सामाजिक
मान्यता दिलाने की आवश्यकता है | जीवन दुर्वह भार न बन जाए इसके लिए सामाजिक
प्राणी की सामाजिक प्रतिष्ठा तो होनी ही चाहिए | अगर इनकी संतानें हैं तो उन्हें
भी शिक्षा, विकास व रोजगार के सभी अवसर उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता है | देह
व्यापार में ऊँगली भले ही वेश्या की ओर उठती है किंतु यह पितृसत्ता के तुष्टीकरण
की नीति के तहत ही तो जीवित है | “पुरुष वर्ग रस्सी से बँधी स्त्री का स्वाद भी
पाना चाहता है और रस्सी तुड़ाई हुई स्त्री का भी
|”10
पितृसत्ता जो स्त्री संवेदनाओं का मर्मज्ञ बना फिरता है क्या वह इस
तथ्य को झुठलाकर, इन अमानवीय और असामाजिक कृत्यों को समूल नष्ट करने के लिए कृत
संकल्प है ? पूरा समाज जो इस संकल्प की पूर्णता हेतु जी जान से जुट जाए फिर देह-व्यापार
के उन्मूलन के साथ इन यौनकर्मियों की समाज में मनुष्योचित मान-प्रतिष्ठा होने से
कोई रोक न पाएगा | इसके साथ ही इन्हें रोजगार के अन्य साधन भी उपलब्ध कराए जाएँ |
पितृसत्ता जो इनके उपभोग के बदले इनके अर्थाभाव को भरता रहा है अब जबकि स्त्रियों
की संवेदना और सम्मान के हक में क़ानूनी कार्यवाही द्वारा इस व्यापार को बंद कर
दिया जाएगा, उस स्थिति में पितृसत्ता के
पूँजी का जो हिस्सा पहले चकलाघरों में जाता था अब वह उनकी बचत राशि में ही जुड़ा
रहेगा | लघु प्रायश्चित के रूप में वे इसका उपयोग इनके लिए रोजगार के वैकल्पिक
साधन जुटाने में कर सकते हैं | आम जनता,सरकार, कानून, पुलिस और प्रशासन की मदद से
ऐसे प्रयत्न अवश्य होने चाहिए जिससे कि चकलाघर के वासियों का अपना घर हो, इन्हें
अर्थोपार्जन के सम्मानित अवसर मिलें और लज्जा-घृणा मिश्रित घुटन भरे वातावरण से ये
सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाएँ | ही मिट जाए | सच्चाई की ठोस धरती पर चकलाघर जैसी
अमानुषिक संस्थाओं का अस्तित्व मिटना चाहिए |
सामान्यतः देखा जाता है कि चकलाघरों पर रेड पड़ने के परिणामस्वरूप
पीड़ितों को ही और पीड़ा भोगनी होती है जबकि क़ानूनी शिकंजे तो उन सफेद कालर वाले
मालिकों, संचालकों और ग्राहकों पर भी कसना चाहिए
जिनके कारण एक स्त्री एक ही जीवन में अनगिनत बार मृत्युसदृश पीड़ा का आलिंगन
करती है | इस देह व्यापार के अंत से हाशिए पर खड़ी उपेक्षित स्त्री समूह को पूर्ण
मनुष्य होने का अहसास मिलेगा | इनके लिए उपलब्ध कराए गए वैकल्पिक रोजगार के साधन
एवं शिक्षा व्यवस्था स्त्री अस्मिता और अस्तित्व की स्थापना में सहायक ही होंगे | ‘तिनका
तिनके पास’ उपन्यास की मुन्नी बेगम का म्युनिसिपल कमीशनर चुना जाना इसी व्यवस्था
का परिणाम है | यौनकर्मी को देह व्यापार का लाइसेंस दे देना इस समस्या को पोषित
करते रहने जैसा है | वृद्धावस्था में जब वे इस व्यापार के लिए अनुपयुक्त हो जाएँगी
तब उनका जीवन-यापन कैसे होगा ? मनुष्य को मनुष्य का दर्जा मिलना ही मनुष्यता के हक
में है अन्यथा समाज में उत्पन्न विसंगतियों का तोड़ निकालना मुश्किल होगा | “सोचा
है क्या किसी ने कि आम्रपाली को बुद्ध ही क्यों अच्छे लगे थे ? क्यों लगे थे अच्छे
मेरी मेक्डेलिन को ईसा मसीह |”11 रूप और गुण का संघात हैं स्त्रियाँ
जिन्हें कोई विरला ही सही-सही समझ पाता है और वही उनकी आत्मा को छू सकने वाला ही उन्हें
भाता है जो मनुष्य को मनुष्य मानता है |
संदर्भ :
1. अनामिका, 2008, तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी
प्रकाशन, पृ. 176
2. खेतान, प्रभा. 2007, बाजार के बीच : बाजार के
खिलाफ, दिल्ली : वाणी प्रकाशन, पृ.128
3. वही, पृ.120-121
4. अनामिका,
2008, तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी प्रकाशन, पृ. 179
5. वही,
पृ. 63
6. मिश्र, प्रभात कुमार, 2008, विद्यापति के
काव्य में मिथिला का जनसमाज, समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून पृ.45
7. संवाददाता, जागरण. 17-03-2017, 80 दिनों बाद अगवा
छात्रा बरामद, तीन को जेल. अंक 330, दैनिक जागरण, पटना, पृ.6
8. अनामिका,
2008, तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी प्रकाशन, पृ. 95
9. वही,. 244
10. यादव, राजेंद्र. और अर्चना वर्मा, 2002, औरत : उत्तर
कथा, दिल्ली : राजकमल प्रकाशन, पृ.154
11. अनामिका,
2008, तिनका तिनके पास, दिल्ली : वाणी प्रकाशन, पृ. 287
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